Friday, 8 January 2021

सुन तो ज़रा - कपिल aniruddh

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

              

कहते हैं सब श्यामल जिसे

निर्मोही और निष्ठुर जिसे

वो कौन लागे है तेरा

सारे तमाशे छोड़ कर

दुनिया से मुंह को मोड़ कर

तुझ को रिझाये क्यों भला

यमुना किनारे बैठ कर

क्यों छेड़ता है बांसुरी

अंजान सा सुर भर के वो

तुझे कर गया क्यों सुरमयी

क्यों अंक में तुझ को बिठा

वो कर गया है सुरमयी – (1)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

सब पूछते हैं अब तुझे

कैसे बनी तू सांवली

तुम तो थी कंचन कामिनी

इक चंचला सी दामिनी

तुम गौर वर्णा थी कभी

तुम थी कभी गजगामिनी

कल की वो चंचल कामिनी

अब हो गयी क्यो यामिनी

तुझे लाज आती है बहुत

पर लाज ही बैरन तेरी

इस लाज के कारण ही तू

इक मौन धारे चुप सदा

बस ढूंढती हो श्याम को

इन वीथियों में घूमती

वो दिन अभी भूला नहीं

सावन में जब श्यामल घटा

नभ से धरा पर आ गई

और अंक में तुझ को बिठा

फिर से गगन में खो गई

वो गौरवर्णा गुम हुई

गजगामिनी भी खो गई

वो चंचला स्थिर हो गई

श्यामल घटा की वो छुअन

कुछ तो बता क्या कर गई

क्यों गौर वर्णा बन गयी

इक सांवली सी श्यामली-(2)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

दिन में किसे हो खोजती

क्या ढूंढती हो रात में

यमुना किनारे कौन है

क्या देखती हो बाग में

बन मौनधारी चुप सदा

बोलो किसे हो खोजती

बेसुध सी तुम खोई हुई

क्या ढूंढती हो शून्य में

उस दिन बता तो क्या हुआ

सखियों ने था घेरा तुम्हें

सब छेड़तीं और पूछतीं

तुम से पता तेरे श्याम का

तेरी हर अदा थी बोलती

कई राज़ गहरे खोलती

तेरा रोम रोम था कह रहा

मेरा श्याम मेरे साथ है

फिर क्या हुआ क्या घट गया

तेरी हर गति बस रूक गयी

गर्दन तुम्हारी झुक गयी

वो पास या था या दूर था

तेरे मुख पे अद्धभुत नूर था

फिर क्या हुआ कैसे कहूं

मैं कुछ कहूं या चुप रहूं

तू सांवरे में खो गई

और इक उजाला हो गई

फिर देर तक तूं झूमती

और नाचती गाती रही

क्या संग नाचे श्याम थे

या थी अकेली सांवली-(3)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

         

कभी हसती हो कभी रोती हो

कभी सोते सोते जगती हो

कभी जगते जगते सोती हो

कभी खीझती मुसकाती हो

कभी खुद से ही बतियाती हो

पदचाप कभी तुम सुनती हो

और झटके से उठ जाती हो

उस दिन तुम्हें देखा वहां

कुछ झूमते गाते हुए

इक बेखुदी में नाचते

खुद से ही बतियाते हुए

 

श्याम तुझ से प्रीत कर के श्यामली मैं हो गई ।

सांवले से प्रीत जोडी सांवली मैं हो गई ।

क्ल तक थी कचन कामिनी इक चंचला सी यामिनी

क्या जादू तूने कर दिया इक रंग मुझ में भर दिया

वो दामिनी वो कामिनी देखो हुई है सांवली अब श्यामली

भांवरे से प्रीत कर के भांवरी मैं हो गई ।

 

पूछे मुझे सखियां मेरी तुझे क्या हुआ तुझे क्या हुआ

ओ सांवले ओ भांवरे इतना मुझे बतलाओ तुम

मैं उन से जा कर क्या कहूं कुछ भी कहा जाता नहीं

हर शब्द अब लाचार है वह कुछ भी कह पाता नहीं

बस इसलिए मैं मौन हूं दिखती भी हूं पर गौण हूं

चांद से है प्रीत जोडी यामिनी मैं हो गई ॥ - (4)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

क्यों आज दुश्मन बन गई

वो माधुरी वो सुरमयी

इक बांस की वो बांसुरी

दोनों में बन कर तान से

जब गूंजते हैं श्याम ही

सौतन हुई फिर क्यों तेरी

वो बांस की इक बांसुरी

वो तो खोखली सी बांस की

थी लाकडी इक मधभरी

और तुम भी तो बेजान थी

आधी अधूरी धभरी

दोनों में अपनी फूंक से

जब प्राण उस ने भर दिये

वो हो गई इक बांsसुरी

तुम्हें कह गये वो श्यामली

फिर हो गई क्या बात है

किस बात से बैरन बनी

सौतन हुई वो बांसुरी – (5)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

जब बांसुरी की देह पर

थिरके हैं उस की उंगलियां

तब धरा के तन पे तेरे

पांव भी हैं थिरकते

जब उस के ओठों से लिपट

रसपान करती बांसुरी

तब झूमती तो तुम भी हो

बन रसभरी इक माधुरी

जब मूंद कर अपने नयन

बंसी में भरता प्राण वो

निष्प्राण सी तेरी देह में

जीवन का सुर है गूंजता

सौतन जिसे कहती हो तुम

कहती हो तुम बैरन जिसे

वो बांसुरी तेरी मीत है

इक गीत है संगीत है

जीवन की अनुपम रीत है

बंसी बजाते श्याम जब

बजती हो तुम ही सुरमयी- (6)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

मिल कर तुम्ही तो श्याम से

कहती थी मैं बंसी तेरी

हर पल तुम्ही कहती तो थी

 

जब से बनी तेरी सखी

तेरी माधुरी तेरी बांसुरी

तब से मेरे मन में हर पल

गूंज तेरी गूंजती

अवगुण सभी सब दोष मेरे

अब बांसुरी के छेद हैं

जिन पर तुम्हारे हाथ की

अब थिरकती हैं उंगलियां

और थिरकते हैं अधर तेरे

इक छेद से मेरे अधर पर

जो गूंज भरते हैं निरन्तर

मेरे मौन से अस्तित्व में

मेरे सखे प्रियतम मेरे

मैं झंकरित मैं बज रही

अब मात्र इतना कह रही

तूने जड को चेतन है किया

कैसी दया तेरी हुई

निकृष्ट से इक बांस की

सूखी जली इक लाकडी

बेजान सी बन की जडी

अब क्या से क्या है हो गई

भूषण तेरा शोभा  तेरी

तेरे हाथ की यह बांसुरी

तेरे हाथ की यह बांसुरी - (7)

 

सुन तो ज़रा ऐ साँवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

              

जब बांसुरी भूषण तेरा

जब बांसुरी शोभा तेरी

फिर हो गई क्या बात है

सौतन हुई फिर क्यों तेरी

वो बांस की इक बांसुरी

वो दिन अभी भूला नहीं

सब भूल कर जब झूमती

और नाचती गाती थी तुम

 

तुम मधुर सी इक तान हो

और मैं हूँ तेरी बांसुरी

इक खोखली सी लाकडी

अधरों पे तुम ने क्या धरी

 मैं थी निर्गुणी थी बेसुरी

तूने कर दिया मुझे बांसुरी

 

कभी धूल थी कभी राख थी

फिर बांस की इक शाख थी

मुझे छेद डाला था गया

मैं जल गयी मैं थी मरी

तेरी इक छुअन से जी उठी

अमृत प्याला पी उठी

तूने गूंज मुझ में क्या भरी

मैं बन गई इक बांसुरी

 

इक शिष्य मैं तुम हो गुरू

इक जिस्म मैं मेरे प्राण तुम

मैं शब्द हूं तुम भाव हो

दुविधा हूं मैं समाधान तुम

तुम मधुर हो मैं हूं माधुरी

तुम तान हो मैं हूं बांसुरी – (8)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

दर्पण में खुद को चूम कर

जब इक अदा में घूम कर

तुम नाचती हो झूम कर

क्यों कर लगे ऐसा तुम्हे

हाथों में उस का हाथ है

तेरा मीत जो तेरा नाथ है

तेरे हर कदम पर साथ है

क्यों कर लगे तेरी हर अदा

तेरी मस्तियां तेरी हर सदा

सब से अलग सब से जुदा

उस श्याम की ही देन है

सब भूल कर जब छेडती

तुम सुर कोई अन्जान सा

क्यों कर लगे तेरे मीत ने

बंसी की धुन है छेड दी

कभी प्यार में खोई हुई

कुछ जागती सोई हुई

यूं देर तक रोई हुई

जग की बहारें देखने

आती हो अपने द्वार पर

तुम्हें क्यों लगे नैना तो बस

इक खोल से हैं खुल गये

नैनों की इन दो खिडकियों से

झांकता तेरा श्याम है

झांके वही वही देखता

इस जग की सारी रौनकें

क्यों कर लगे ऐसा कभी

खो सी गई है श्यामली

अब हर तरफ हर इक जगह

तेरा श्याम ही है घूमता

दर्पण में दिखती श्यामली

जाने कहां है खो गई

अब श्याम ही दर्पण में है। 

वही दृष्य में दर्शी वही

वही नाचता वही झूमता

खुद को वही है चूमता

दिखता है हर सू श्याम अब

गुम हो गई है श्यामली – (9)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

दर्पण में खुद को देख कर

क्यों लाज आती है तुम्हे

अपनी ही छाया देख कर

क्यों सुर्ख हो जाती हो तुम

प्रतिबिम्ब में क्या सांवली

तुम्हे दीखता है सांवला

दर्पण में दिखते श्याम हैं

दिखती है या फिर श्यामली – (10)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

उस दिन बता तो क्या हुआ

गर्दन झुकाये देखती

इक शांत से पोखर में तुम

परछाई काले मेघ की

फिर देख श्यामल मेघ को

तुम झूमती सी कह उठी

वो बांध कर इक टिकटिकी सी

सांवला मुझे देखता

फिर क्या हुआ कैसे कहूं

तेरी आंख से उस मेघ से

बहती हुई जलधार इक

पोखर में गिरने लगी

ठहरे हुए पोखर के तुम

फिर दोष सारे धो गई

तुम जागते ही सो गई

बस श्याम की ही हो गई – (11)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

जब मूंद कर अपने नयन

किसी याद में खोई थी तुम

फिर क्या हुआ नयनों से क्यों

बहने लगी काली घटा

तू चल पडी किस ओर थी

कहती रही कहती गई

घनश्याम आये हैं मेरे

आहट सुनाई दी मुझे

आंखें दिखाई दी मुझे

वो बांसुरी की तान से

आये चुरा कर ले गये

मुझ से मुझी को छीन कर

जाने कहां हैं खो गये

काली घटायों को कभी

तुम देखती हो देर तक

और कभी तुम श्यामनभ को

बांध कर इक टिकटिकी सी

देखती हो भोर तक

काली घटा और श्यामनभ में

बोलो किसे हो खोजती

उस दिन बता तो क्या हुआ

काली घटा को एकटक

तुम देखती थी जा रही

सप्त रंगों की रंगोली

मेघ पर थी छा रही

तुम कह उठी तुम कह गई

देखो मेरे घनश्याम को

बेसुध हुई तुम देखती

कहती रही कहती गयी

श्याम ने धारी है सर पे

मोर पंखों की रंगोली

फिर क्या हुआ तुम खो गई

तुम जागते ही सो गई

सब कह उठे यह भावरी

जाने यह क्या है कह रही

हर्षित सी कुछ हैरान सी

दुनिया से कुछ अंजान सी

अ़ज्ञात से उस मीत से

धीमे से कुछ कहने लगी

 

मैं तो हूं गुलाब की पांखुडी

और तुम सुगन्ध हो फूल की

तुम हो धरा की उर्बरा

मैं एक फांक हूं धूल की

 

कभी शब्द मैं कभी अर्थ मैं

निःशब्द से तुम कौन हो

मैं तो मौन में भी शौर सी

तुम शौर में भी मौन हो

 

मैं तो जल रही हूं बुझी बुझी

तुम बुझे बुझे भी जल रहे

मैं रूकी रूकी सी चल रही

तुम रूके भी हो और चल रहे

 

मैं हूं इधर पर हूं कहां

तुम हो कहां पर सब जगह

मैं जी चुकी सो मर गई

तुम मृत्यु को भी जी रहे

 

कभी तुम सी मैं कभी मुझ से तुम

कभी तुम हो मैं कभी मैं हूं तुम

जब दो हुए हम एक है

तब तुम भी गुम और मैं भी गुम – (12)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

क्यो रात दिन नज़रें तेरी

बस बाट ही को जोहती

कहतें हैं सब अब तो तेरी

कहीं नींद भी है खो गई

कहीं दूर जा के बस गई

या नींद भी अब सो गई

हर रात तेरे द्वार पर

देती है दस्तक जब हवा

उठ भागती हो देखने

अपने पिया घनश्याम को

नहीं चाहती दस्तक कभी

देनी पड़े तेरे श्याम को

कभी बंद द्वार देख कर

पड़े लौटना घनश्याम को

बस इसलिए तुने भुवन से

है द्वार को बाहर किया

तेरे साथ ही तेरा भुवन

करता है अभिनंदन सदा

तेरे प्रेम का तेरे ईश का

निष्ठुर से उस जगदीश का – (13)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

उस दिन तुम्हें देखा वहां

उन वीथियों में घूमते

इक आम के नीचे पड़ी

कुछ गुठलियों को चूमते

जिन को चूमा था कभी

बड़े चाव से तेरे मीत ने

छू लिया हो गीत को

जैसे किसी संगीत ने

फिर देर तक तुम एकटक

रही देखती हिंडोल को

जिस ने अपनी गोद में

झूला झुलाया था कभी

तुम को तुम्हारी प्रीत को

बन भावरी हिंडोल के

तू अंक में बैठी रही

इक बांह तो सिमटी रही

इक शून्य से लिपटी रही

सब भूल कर तू झूलती

बस झूलती ही तू रही

क्या संग श्यामल थे तेरे

या थी अकेली श्यामली – (14)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

धर एक मटका शीश पर

क्यों चाहती है फोड दे

तेरे श्याम का कंकर इसे

कंकर है जब वो मारता

क्यो सामने आ जाता है घट

क्यों मन ही मन कहती हो तुम

मेरी कामना पूरी हुई

भीगा बदन टूटा वो घट

क्हते हैं सब बडभागी तू

जो श्याम की रहमत का पत्थर

तेरे ही घट पे जा लगा

ऐ सांवली ऐ भांवरी

लोगों की फिर चिन्ता तुम्हें

अभिनय को उकसाती है क्यों

नैनों में नकली क्रोध भर

और ज़ुबां पे रोष भर

देने को फिर तू उलाहने

शिकवे शिकायत ले के तू

जाती हो उस के दर पे जब

बंसी पकड़ फि हाथ में

झट सामने आ जाता है वो

फिर देख कर उस नूर को

सब भूल जाती क्यों हो तुम

सब पूछते क्या बात है

उस श्याम का अपराध क्या

तुम भूल कर शिकवे सभी

उसे एकटक हो देखती

सब कह उठें ह सांवली

यह तो भांवरी है भांवरी

जब हो में आती हो तुम

फिर लाज लोकन की तुम्हे

करती विव कहने को यह

चंचल चपल लम्पट बड़ा

नंदलाल है नटखट बड़ा

नवनीत की चोरी करे

और नीर भरने जाऊं जब

वो फोड़ता है घट मेरा

और मन ही मन तू सोचती

महाचोर उस का नाम तो

तेरी चाहतों की देन है

तू चाहती थी एक दिन

तेरा दिल चुरा वो भाग ले

और सब से तू कहती फिरे

मेरा दिल भी अब मेरा नहीं

चोरी ही जिस का काम है

महाचोर जिस का नाम है

उसे वो चुरा कर ले गया- (15)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

फिर चुपके से तू चल पड़ी

बीरान से रस्ते पे इक

पहचान के जब लोग सारे

आंख से ओझल हुए

तुम झूम कर गाने लगी

 

किसी का तन चुराता है किसी का मन चुराता है

चुराता दोष मोहन सब कभी अवगुण चुराता है

                     

सकल संसार में ऐसा नहीं है चोर कोई भी

करे जो अर्चना इस की उसी का मन चुराता है

 

घुमा कर प्रेम का कंकर अहम की मटकियां फोड़े

बनी जो लाज बैरन सी वही मोहन चुराता है

 

यह छीने शोक शंका भय हरे यह द्वंद्व भी सारे

उठा ले सिसकियां सब की सभी क्रन्दन चुराता है

 

न जाने कब कहां क्या छीन लेगा मुरलीधर यारो

यह तोड़े बेडियां सब की सभी बन्धन चुराता है

 

विचारों को मिटा डाले चुराये भाव भी सारे

बचा जो नीर आखों में वो नंदनंदन चुराता है

 

चुराने पर अगर आये नहीं कुछ शेष रहने दे

कपिल सर्वस्व भक्तों का किया अर्पण चुराता है – (16)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

हर इक अदा तेरे श्याम की

हर बात उस घनश्याम की

सब से निराली है सदा

सब से अलग सब से जुदा

अद्भुत अनोखे श्याम की

हर इक अदा में है वफा

गर रूठ जाये वो कभी

हो जाये वो सब से खफा

उस ढ़ग में भी माधुरी

उस रूप में भी बात क्या

कभी प्रीत भर नज़रों में वो

तुम्हें देखता है बारहा

उस की निगाहों से लगे

कईं रंग जैसे झर गये

उसे देख कर रंगी बने

जाती पवन आती हवा

उगते हुए सूरज में वो

सब का ही अभिनंदन करे

ढलते हुए दिनकर में वो

कहता सभी को अलविदा

बन मेघ श्यामल वो कभी

हर ताप दुनिया का हरे

मरूभूमि में बरसे कभी

हरने को हर इक आपदा

वोहि पास भी वही दूर है

निरपेक्ष दुनिया से सदा

कहते जिसे सब जानकार

बही प्रीत सब को हर घड़ी

बस बांटता ही जा रहा

कहते जिसे जग से उसे

कोई काम क्या क्या है वास्ता

वही हर तरफ आका सा

देखो तन गया बोहि बिछ गया

बन इक डगर इक रास्ता – (17)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

जब भूल कर सर्वस्व अपना

भूल सारी बंदिशें

श्वेत  से कन्वास पे

वो रंग भरता है कोई

क्यों तुम्हें लगता है तब

अवहेलना तेरी हुई

जब कभी वो लेखनी से

शब्दों को देता गति

निर्मोही की संज्ञा भला

तब क्यों उसे देती हो तुम

प्राण भर जब बांसुरी में

छेडता वो सुर कोई

सब से तुम कहती फिरो

निष्ठुर बडा वो श्याम  है

बेनूर से चेहरों पे जब

तेरा श्याम भरता रंग है

बेरंग में भी रंग इक

लेता है फिर अंगडाईयां

हर रंग फिर इक शान से

खुद पे ही इतराने लगे

फिर टूट जायें चुप्पियां

हर मूक भी गाने लगे

जब लेखनी में प्रेम भर

नव सृजन वो करता फिरे

नव कोंपलें फूटें कईं

कई बीज होते अंकुरित

हर शब्द फिर कहने लगे

मैं मुग्ध हूं मैं मुक्त हूं

कभी जीव था अब ब्रह्म हूं

 

शब्दों में भरता रंग वो

रंगों में भरता तान है

उस श्याम का कन्वास तुम

तेरा श्याम रचनाकार है

 

कभी ले हाथ पिचकारी

किसी मूरत पे मारे वो

तुम्हारा श्यामली बोलो

नहीं श्रृंगार होता क्या

 

कभी जब तूलिका अपनी

वो कन्वस पे घुमाता है

तुम्हें लगता नहीं क्यों कर

तुम्हीं में रंग भरता है

 

तुम्हारा श्याम मतबाला

बनाता चित्र अद्भुत से

सृजनकर्ता कहाता है

तुम्ही में रंग भर भर के – (18)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

हर पल हर क्षण कृष्ण कन्हैया

देखो होली खेल रहा है

भर पिचकारी देखो उस ने

आसमान में रंग बिखेरे

फाग उड़ा कर मनमोहन ने

इन्द्रधनुष के रंग बनाये

लाल सुनहरी हरे गुलाबी

फूल उसी की होली के हैं

सूर्यमुखी वो गेंदा पंकज

रंगे उसी ने इन रंगों में

अद्भुत चित्र बनाये उस ने

रत्नाकर को नील गगन को

रंगा है उस ने अपने रंग में

हरियाली खुहाली उस के

रंगों का ही करतब जानों

खो कर उस ने प्रेम रंग में

रंग डाली यह सृष्टि सारी

शब्द शब्द पे हर अक्षर पे

मारी उस ने भर पिचकारी

उस के ही रंगों से सारे

देखो कैसे खेल रहे हैं

ऊपर बैठा देख रहा वो

जादू अपने ही रंगों का

जिन रंगों से उस ने सब को

रंग डाला है उन रंगों को

देखो खुद पे डाल रहा वो

अपने ही रंगों से पल पल

स्वयं वह होली खेल रहा है – (19)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

मधुमास फिर से आ गया

फिर आ गया ऋतुराज है

नव कोंपलें पल्लव नये

अब हो रहे हैं अंकुरित

नव सृजन हर पल हो रहा

मन वीण अब हैं झंकरित

नवगीत देखो गा रहे

सुरभित पवन जलधार भी

इक रंग में डूबा हुआ है

यह सकल संसार भी

हर ठूठ मुस्काने लगा

हर शुष्क हरषाने लगा

पर तुम हो क्यों सोई हुई

ज्यों मार खा रोई हुई

तेरा बसन्त गुम है कहां

कहां खो गया मधुमास है

हर रंग में डूबा हुआ

हर फूल जब हर इक कली

बेरंग सी क्यों लग रही

उस श्याम की यह श्यामली – (20)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

कुछ लाल गुलाल उड़ा उस ने

हर शै को यहां रंग डाला है

फिर एक सूत्र में गूंद उन्हें

 पहने पुष्पों की माला है

उस लाल से जब भी लाल उड़े

हर और बहारें आ जायें

कभी नभ पे दिखे सुनहरी रंग

फूलों पे लाली छा जाये

जो दिखते काले नीले सब

कुछ हरे जामुनी पीले सब

उन में भी गहरी पैठ बना

वो सुर्ख बना छुप बैठा है

रंगों की भाषा बोले वो

रंगों में सब कुछ कहता है

हर माह दिवस हर पल हर क्षण

वो रंग उड़ाता जाता है

भर पिचकारी कुछ फाग उड़ा

रंगों की धूम मचाता है - (21)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

उस और धीमें स्वर में देखो

हैं सांवली कुछ कह रही

चुपचाप जैसे इक नदी

आंखों के रसते बह रही

 

तू झूम के आ इक धूम मचा

मेरी सूनी सूनी चादर पे

भर पिकारी इक रंग लगा

इक गहरा काला सन्नाटा

मेरी प्रेम बेल को काट गया

इक बीराने का सूनापन

मेरे मन उपबन में बैठ गया

इस सूनेपन की अखियों में

तू लाल गुलाल की फाग उड़ा

तू झूम के आ इक धूम मचा

मैं भूली हसना रोना सब

जीवन में कोई रंग नहीं

इक शिला बनी हूं पत्थर

कोई भाव उमंग तरंग नहीं

तू छू कर इस मैले नद को

इक पावन गंग तरंग बना

तू झूम के आ इक धूम मचा – (22)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

तुम्हें क्यों लगे सारा जहां

तेरी प्रीत का दुश्मन हुआ

तुम्हें क्यों लगे सब चाहते

तेरे प्रेम का कोई यहां

अस्तित्व बाकी न रहे

लगता तुम्हें सब ओर से

तुम्हें घूरती नज़रें कईं

सब और फैला नफरतों का

ज़हर सा संसार में

हर मन करे अवहेलना

हर द्वार है दुत्कारता

हर हाथ में खंजर कई

हर आंख में है किरकिरी

तुम्हें क्यों लगे बैरी सभी

साजिश को अब तैयार हैं

ऐसे में चुपके से यदि

तेरे शीश के किसी द्वार से

तेरा श्याम भीतर जा बसे

घूमती नज़रों में फिर

तेरे श्याम की सूरत दिखे

हर हाथ का खंजर भी बदले

कईं पुष्पहारों में तभी

हर द्वार फिर कहने लगे

स्वागत है अभिनंदन तेरा

दुश्मन सभी बैरी सभी

तेरे श्याम की उस याद में

फिर जा मिलें इक रूप् हों

दुश्मन कहां साजिश कहां

तुम्हें खुद पे आये फिर हंसी

हर ओर फिर बजने लगी

अदृष्य सी हनाईयां

सूक्ष्म रंगों में मचे

तेरे मन में होली का धमाल

बेरंग सी फिर भांवरी

इक नूर बन कर गा उठे

 

जिधर देखो बिखेरे है कन्हैया रंग होली के

निराले हैं बड़े केशव के यारो ढंग होली के

 

मधुर वह तान है छेडे बिखेरे है मधुरता ही

मधुर रस में डुबोये है वो आये संग होली के

 

सभी रंगों का मालिक है मनोहर सांवला यारो

बिहारी ने हैं रंग डाले सुनो सब अंग होली के

 

कहीं फूलों में मुसकाये कहीं बन मेघ छा जाये

मनोहर से ही आते है सुनों सब ढंग होली के –(23)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

बेरंग थी मैं बेनूर बडी

बेरंग सी चिट्ठी सी घूमी

न मांग मेरी ने चाह मेरी

बीरान सी कंद्रा इक सूनी

मैं धूमकेतु बन छापित सी

बस मारी मारी फिरती थी

इक रंगों के व्यापारी ने

इक दिन इक पल इक मौज में आ

इक फाग उड़ा भर पिचकारी

बिन मौल मुझे रंग डाला था

बेनूर बनी नूरानी सी

सागर के नीले पानी सी

मैं झूम उठी मैं नाच उठी

इक रंग बनी आसमानी सी – (24)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

देखो दिनकर नील गगन संग

कैसे होली खेल रहा है

धीरे धीरे हाथ बढा वह

दूर करे मेघों की चादर

चुपके से फिर सतरंगी इक

भर पिचकारी वो फाग उडाये

कले घन को नील गगन को

सतरंगी चादर औढाये

और इघर भी देखो प्यारे

चुपके से यह अम्बर भी तो

नीला रंग मले सागर को

खेल खेल में सागर को भी

नीलाम्बर पहनाता जाये

छाया अपनी देख उसी में

स्वयं पे ही इतराता जाये

देख गगन की होली प्यारी

फिर से दिनकर ले आया है

झोली भ कर सुगन्धित सी

रंग बिरंगी एक पिटारी

फेंक लालिमा दूर गगन में

इस  धरती को और सागर को

उषा का उपहार दे गया

और उसी में रंग मिला कुछ

संध्या को विस्तार दे गया – (25)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

बेनूर तुम्हारी हस्ती को

नूरानी सा जिस ने है किया

वो क्यों कर काला कहलाये

क्यों कहलाता वो श्यामल है

जिस के आने से दीप जलें

बेनूर को हर पल नूर जो दे

बेरंग में जो इक रंग भरे

कुछ लाल गुलाल उड़ा जिस ने

तेरे मन में प्रेम का रंग भरा

फिर भी वो श्यामल क्यों है भला

न कुछ भी बोलती हो तुम

न चुप्पी तोड़ती हो तुम

न देखों देख कर कुछ भी

सुनी सब अनसुनी कर दी

बिना बोले भी तू लेकिन

बहुत कुछ बोल जाती हो

तेरे अस्तित्व की चुप्पी

सुनाई दे गई मुझ को

 

पर्व है आनन्द का इक

मैं भी नाचुं तू भी नाचे

मौन के कितने पलों को

हम ने है इक साथ भोगा

निःशब्द की सरगम सुनी है

चुप्पी के हैं गीत गाये

तेरी नज़रों में है देखा

मैंने अपना रूप अक्सर

तेरे अन्तस में जो गूंजी

बांसुरी मैंने भी सुन ली

तेरी चुप्पी आ घुली है

मेरी चुप्पी में अचानक

मौन के आनन्द में अब

मैं भी तेरे साथ नाचूं –(26)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

श्वेत से कन्वास पर

घूमे जो उस की तूलिका

शून्य से आकार इक

लेता है फिर अंगडाईयां

एक पन्ने को कभी

वो देखता है गौर से

अरूप में भी रूप जैसे

कोई झट से देख ले

इक सलेटी रंग फिर

पन्ने पे ऐसे बिछाये

बन चुके आकार पर कोई

तूलिका जैसे घुमाये

बेनूर में भी नूर फिर

आकर समाये इस तरह

तम को भी उज्जवल बनाये

वो दिवाकर जिस तरह –(27)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

श्यामल तुम्हारे श्याम ने

क्यों श्यामली तुम को किया

औरों को बांटे रंग जो

क्यों कर वो श्यामल है भला

तेरी तरह हर रंग की

चाहत यही इच्छा यही

बन ओढनी वो श्याम के

बस तन से ही लिपटा रहे

औरों को वो तो बांटता

रंगों की ही सौगात है

अपने लिए कुछ कामना

चाहत कोई उस को नहीं

औरों को बांटे रंग जो

श्यामल तेरे उस श्याम पर

कोई रंग चढता ही नहीं – (28)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

हर पल घडी हर रात दिन

तुम श्याम को हो पुकारती

कभी बन गुफा में खोजती

कभी ताकती उद्यान में

अब तो सतत नज़रें तेरी

बस श्याम को हैं ढूंढती

अब तन की तुम को सुध नहीं

और मन कहां तेरे पास है

दिखती हो तुम खोई हुई

होती कहीं तुम ओर हो

हर पल खुदी से पूछती

क्यों सांवरा दिखता नहीं

मेरा सांवरा किस ओर है

हरने को मेरी वेदना

श्याम आ जाओ कभी

पर सांवरा आता नहीं

मन चैन कुछ पाता नहीं

मिलने को आतुर सांवरी

बन जाती है फिर भांवरी

बेसुध सी तुम खोई हुई

जाती हो हर इक द्वार पर

हर राह से तुम पूछती

तुम पूछती पाषाण से

हर इक लता उद्यान से

बन भांवरी तुम पूछती

सब से पता घनश्याम का

कोई तुझ से कुछ कहता नहीं

सब मूक दर्शक बन के बस

तुझ भांवरी को घूरते

लगता तुझे तेरा बजूद

अब इस धरा पर भार है

लगता तुझे अस्तित्व तेरा

कहीं डूबता मझधार है

कहती हो तुम सब हार के

अब हे सखे प्रियतम मेरे

जीवन जिया जाता नहीं

अब कुछ किया जाता नहीं

मेरे प्राण हर लो नाथ अब

मैं इस धरा पर भार हूं

मैं जीव इक निस्सार हूं

होता बिर्सजित जब तेरे

जीवन का सारा मोह है

बस फिर कहीं इक शून्य  से

इक लौ सा गाता नाचता

आ जाता है वो सांवरा

और मृत पड़े अस्तित्व में

आ जाती है इक चेतना

फिर लौ का पुंज बन सांवरा

निष्प्राण सी तेरी देह में

बन प्राण बन इक आत्मा

भरता है तुझ में चेतना

उस सांवरे की लौ से फिर

लेती जन्म है सांवरी

इक शून्य में फिर गूंजता

है दिव्य सा इक स्वर कहीं – (29)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

निर्मोही जिसे कहते हैं सब

वो प्रेम का अवतार है

इक करूण सी सरगम है वो

इक अनसुनी झंकार है

निष्ठुर नहीं वो प्रेम की

बहती हुई जलधार है

जो मान और सम्मान को

देखा करे बड़ी दूर से

आदर अनादर की जिसे

चिन्ता नहीं चाहत नहीं

अवहेलना तेरी कहो

क्यों उस के हाथों हो गई

सुन सांवरी सुन भांवरी

क्यों आज तेरी चेतना

जगने से पहले सो गई

गर चाहती हो श्याम तेरी

ओर ही देखा करे

गर चाहती वो प्रेम का

सागर सदा बांटा करे

तब मांग ले उस श्याम से

इक आंख जो कि बेद दे

बाहर से दिखते खोल को

तब मांग ले वो कान

जो तेरे श्याम की सरगम सुने

फिर जान जाओगी सखी

निष्ठुर जिसे कहती हो तुम

वो हर घड़ी व्याकुल दिखे

हरने को सब की वेदना

वो हर घड़ी घूमा करे

बन कर सदा सब का सखा

उस श्याम की संवेदना

किस ने सुनी किस ने कही – (30)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

विपदाओं के तूफानों का

हस हस जो करता है मर्दन

संकट के जो वक्ष पे पल पल

करता है इक अद्भुत नर्तन

जो अपने आलोक से भर दे

अंधियारे का खाली वर्तन

वोहि तुम्हारा श्याम सखा है

बंसी की जो एक तान सा

सब के मन को मोह लेता है

बन के नटबर सा जो नटखट

गोपिन का घट यमुना के तट

फोड़ के भागे सरपट झटपट

प्रेम से भर दे सब का ही घट

वोहि तुम्हारा श्याम सखा है

जिस की दृष्टि इक ही पल में

छीन ले सब से सब का सरबस

लूट ले जो सब का ही मनवा

बातों ही बातों में हसहस

वोहि तुम्हारा श्याम सखा है –(31)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

तेरा मीत वो तेरा सखा

रहता है तुझ से क्यों खफा

क्यों सुध तेरी लेता नहीं

क्यों तुझ को भूला वो भला

तुम तो सदा कहती रहो

मेरा यार सब से है जुदा

मेरा हमसफर मेरा पासवां

मेरे पास वो रहता सदा

सुन ऐ सखे तुम जान लो

मेरी बात अब के मान लो

तेरा मीत निष्ठुर है बड़ा

निर्मोही कहता जग जिसे

तेरे मन में आ के क्यों अड़ा

कहती हो तुम वो प्रेम का

सागर है इक सब से बड़ा

पर प्रेम का सागर सुनो

तुझ को रूलाये क्यों भला

दयालु जिसे कहती हो तुम

वो हो गया है क्यों कड़ा

वो मस्तमौला क्यों तुझे

देता नहीं अपना पता

तुम को भुला वो इक तेरा

कुछ तो बता रहता कहां

फिर तोड़ कर गाम्भीर्य अपना

इक ओर चुप्पी धर के तुम

कहती हो तुम मेरा सखा

प्रियतम मेरा मेरा पिया

मन में उतर कर देख लो

इक बार मुझ को गौर से

तुम देख लो भर कर नज़र

जो बात तुझ से है कहे

नहीं श्यामली वो श्याम है

वो श्यामली वो भांवरी

अब श्याम में है खो गई

और सांवले में हो विलय

वो सांवली है हो गयी

सुनता वही वही सूंघता

मेरी हर छुअन में वो ही वो

गर चाहते उस का पता

बस बात इतनी जान लो

मेरे भीतर बाहर बस बही

कुछ कह सकी कुछ अनकही

सुगन्ध वो मैं हूं इक कली

मेरा श्याम वो मैं हूं श्यामली – (32)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

क्यों आज तेरे श्याम ने

निर्मोही से तेरे कान्ह ने

तेरी ओर देखा ही नहीं

क्यों आज तुझ को यह लगा

तेरा श्याम निष्ठुर है बड़ा

सब को ही बांटे प्रमे वो

तेरी ओर उस का रूख कड़ा

क्यों आज तुझ को यह लगा

अवहेलना तेरी हुई

कहता जिसे सौन्दर्य की

प्रतिमा सकल संसार है

उस को तुम्हारे श्याम ने

क्यों आंख भर देखा नहीं

सुन कामिनी ऐ दामिनी

तुम श्याम को समझी नहीं

बाहर से दीखे शुष्क जो

अन्दर से करूणाकर बड़ा

जो बांटता है प्रेम के

सागर सभी को हर घड़ी

निर्मोही उस को किस तरह

कैसे कहेगी सांवली – (33)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

फिर एक सुबह हो गई

दिनकर भी उगने को हुआ

हर ओर कलरव पंछियों का

कर गया मन को तरंगित

हर ओर उगते सूर्य की

मुस्कान सी इक खिल उठी

दिनकर की पूजा के लिए

कईं कलजल से भर गये

जलधार शिवलिंग पर गिरी

मन झंकरित सा हो गया

पर तुम अभी सोई हो क्यों

तेरा द्वार क्यों कर बन्द है

दिनकर में बैठे श्याम का

करने को अभिनन्दन सुनो

पूजा का ले कर थाल तुम

क्यों द्वार तक आती नहीं

आंगन बुहारो श्याम का

आसन सजाओ ऐ सखी

नवचेतना से भर के तुम

छींके पे मटकी को धरो

मटकी में माखुन हो न हो

हो उस में तेरा मन में ज़रूर

इसी ताक में तेरा सांवला

चुपके से मटकी को उठा

तेरा दिल चुरा के भाग ले

और सब से तुम कहती फिरो

मेरा श्याम नटखट चोर वो

दिन दहाडे रोशनी में

मेरा मन चुरा के वो गया

इक चोर वो महाचोर वो

मेरे मन को मटकी से निकाल

जाने कहां वो किस तरफ

है चल दिया किस ओर वो

और उस तरफ तेरा सांवला

तेरे मन से खेले देर तक

बेसुध सी तुम मदमस्त सी

उस श्याम में खोई हुई

फिर चल पड़ो उस की गली

तुम चाहती जग देख ले

मन मांगने उस श्याम से

आई है चल कर श्यामली

नहीं चाहती तेरा मीत अब

तेरा मन तुझे बापिस करे

तेरी कामना चाहत यही

तेरा मीत तेरी डोर को

अपनी तरफ जो खींच ले

बन इक पतंग तुम श्याम की

पीताम्बरी से जा लगो

तेरा श्याम जब भी जिस तरफ

खींचे तुम्हारी ड़ोर को

तुम चल पड़ो सब भूल कर

घनश्याम के हाथों बंधी – (34)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

महफिलें उसे आजकल

सुनों रास आती ही नहीं

पर्व उत्सव भी उसे

जचते नहीं भाते नहीं

लौ की लड़ियों से सभी

जब अपना घर रोशन करें

आतिबाजी खूब हो

जब इक पर्व के नाम पर

शोर हंगामें को तज

तब छोड़ रोशन महफिलें

सुनसान सी बीरान सी

हर पर्व से अन्जान सी

इक राह पे वो चल पड़े

सरगर्मियों से गर्म हों

जब शहर का हर इक मकां

चुपके से तब इक रोशनी

ओढ़े हुए अंधेर को

कह अलविदा वो चल पड़े

अंधेर में सोई पड़ी

इक रोशनी को देखने

जिन बस्तियों को छोड़ बैठे

हैं सभी ऐशों आराम

उन बस्तियों में रात भर

तेरा श्याम फिर घूमा करे

नंगे तन सिकुड़े बदन

किसी बाल को देखे कभी

संतोष पहने प्रेम ओढ़े

किसी माथ को चूमा करे

सुन सांवरी सुन भांवरी

जिन बस्तियों को छोड़ बैठा

निकृष्ट कह कर यह जहां

उन बस्तियों में आजकल

तेरा श्याम रहता है सुनो – (35)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

ऋतुराज में मधुमास में

तेरा श्याम दिखता हो न हो

मरूभूमि में पतझड़ में तय है

वो तुम्हें दिख जायेगा

सुरभित हवाओं में सुनो

उसे ढूंढते जो सर्वदा

इक प्यास में इक ताप में

लू के थपेड़ों में कहीं

उन से कहना श्याम तेरा

कर यकीं मिल जायेगा

अब बहारों के यह मौसम

रास उस को आये ना

पतझड़ों में अब तो उस ने

कर लिया अपना ठिकाना

करूण जल में जिन की आंखें

अब सजल होती नहीं

बो ही उस को ढूंढते

ऋतुराज में मधुमास में

सूर्य तप कर जब धरा पर

हो अंगारे भेजता

उस समय आका पर

वो मेघ श्यामल सा दिखे

अग्नि बरसाता हो अम्बर

जल उठे जब भी धरा

अग्निशामक पेड़ बन वो

दग्ध धरती पर दिखे

श्याम को हो  देखना तो

चल बहारें छोड़ कर

बंजर धरती पर कहीं

हल जोतता मिल जायेगा - (36)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

ढूंढती जिस को सदा

तुम रात दिन हर हर घड़ी

शीशमहलों में नहीं

रहता सुनो वो आजकल

शहर की सब वीथियों को

कह गया वो अलविदा

बाग में उद्यान में भी

अब नहीं उस का ठिकाना

पत्थरों को ढ़ोते जिन के

हाथ भी पत्थर हुए

धूल ही श्रृंगार जिन का

माटी में जिन का बसेरा

झोंपड़ी से देख लेते

जो गहन आका को

बिन दिये कोई उलाहना

लू के थपेड़े झेलते

नंगे तन ठिठुरे बदन

स्वागत करे जो शीत का

आजकल उस का बसेरा

उन के घर है हो गया – (37)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

कुछ भी असम्भव है कहां

तेरे लिए संसार में

दुश्बार से रस्तों पे तुम ने

पग बढ़ाया जब कभी

मुश्किलें आसान हो कर

तेरे आगे बिछ गईं

तेरे चलने से बने हैं

रास्ते कितने नये

तेरे होने से हुए हैं

होने के आसार सब

हर भार को ललकार कर

जब अपने मन में ठान कर

नभ को भी चाहा उठाना

हाथों को अपने तान कर

आका भी हुंकार सुन

इक ओर जा कर धस गया

तेरी चाहत ने बनाया

हर बीराने को बनाया

तेरे पौरुष से जगत भी

बसते बसते बस गया – (38)

        

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

इस माटी को सोना करना

जिन हाथों ने सीख लिया है

उन हाथों में शक्ति बन कर

श्याम सखा ही अब रहता है

जिन का खून पसीना बन कर

सींचे धरती के अंतस को

उन के श्रमबिन्दु में चमके

नटखट श्याम मनोहर देखो

छोड़ो महल मीनारें छोड़ो

बन उपवन में क्या रखा है

खेतों खलिहानों में देखो

श्रमिक बना है श्याम तुम्हारा- (39)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

सब महल उस के हैं लेकिन

महलों वाला वो नहीं

हर मकां उस के ही कारण

वो मकां मालिक नहीं

उस की करूणा सब किनारे

तोड़ कर बहती सदा

चेतना उस की निरन्तर

हर जगह रहती सदा

शीशमहलों के ठहाके

उस को भाते ही नहीं

सब के आंसू पांछने को

वो मगर तत्पर सदा

जिन के हाथों में हुनर है

जिन के हाथों में कला

जिन के हाथों ने सजाया

धरती का आंचल सदा

जिन के हाथों ने किया

निर्माण हर पल हर घड़ी

सृजन की रेखायें जिन के

हाथ हर पल खींचते

सफेद से कन्वास को जो

रंगों से हैं सींचते

छेड़ते संगीत की झंकार

जिन के हाथ हैं

उन के हाथों को यकीनन

सांवरे का साथ है

जिन के हाथों ने संबारी

धरती की किस्मत सदा

उन के हाथों में मनोहर

सांवला रहता सदा –(40)

 

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा कुछ तो बता

 

तेरे श्याम सा कोई दूसरा

कहते हैं सब होगा नहीं

अनुपम अनूठे श्याम सा

कोई है नहीं कोई कहीं

उस श्याम सा कोई है अगर

कोई है कहीं तो है वही

वह एक है तो अनेक भी

हर एक में वो एक ही

वो एक हर इक में छुपा

उस एक सा कोई नहीं

उस एक में कईं दूसरे

उस एक में हैं अनेक भी

हर एक को तुम देख लो

हर एक में वो एक ही

उस एक में जब जा मिली

उस एक में जा घुली

ढूंढे से भी फिर न मिली

उस श्याम की वो श्यामली – (41)

 

इत बांसुरी बजी है उत भाँवरी हुई सब

इत बांसुरी पुकारे उत कौन रोक पाये

 

नयनों को मूँद जब वो बंसी में प्राण फूंके

फिर इक अदा लगन से कितने ही सर हैं झूमे

इत सुरमयी जगत है उत श्यामली हुई सब

 

उत श्याम की हैं तानें इत श्यामली का नर्तन

उत श्यामली का गुंजन इत श्याम का है अर्चन

तन राग श्याम गूँजे और रागिनी हुई सब – (42)

 

श्याम में है श्यामली और श्यामली में श्याम है

प्रेम छबी से पा रहा सुख जगत यह अभिराम है

 

श्यामा के हाथों में बंसी श्याम फूंके प्राण उस में

नृत्य करती साँवली और साँवले की तान उस में

इन्द्रधनुषी रंग श्यामा और गगन घनश्याम है

श्याम में है श्यामली.....................................

हाथ घूमें पाँव झूमे उल्लास में उजास में

युगल नर्तन युग्म अर्चन रास में महारास में

धन्य धरती धन्य अंबर धन्य श्यामाश्याम है

श्याम में है श्यामली..................................... (43)

 

  

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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