Saturday, 13 September 2014

ghazal by kapil

एक पल में पर्व में बदली है कैसे आपदा
एक पल में कैसे उभरी भाग्य की रेखा बता
एक पल में बंद है सदियों की दौलत बेपनाह
और सदियों में छुपा है एक पल कोई नया
ढूंढती सदियों रही जो उस के पावों के निशाँ
एक पल में दे गया वो उस को अपना हर पता
मुझ को मुझ से एक पल में वो मिला कर चल दिया
गुमशुदा था मैं तो कब से कब से था मैं लापता
एक पल ही उस ने मुझ को प्यार से देखा 'कपिल'
आस्मां धरती पे उतरा नभ पे छाई यह धरा

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