Saturday, 25 April 2020

Tulsi Ratna ke Ram by Kapil Anirudh


      तुलसी रत्ना के राम

सद्ग्रन्थ सभी जब लुप्त हुए
दर्शन सारे ही गुप्त हुए
जब चेतन शून्य हुआ मानव
आलोक सभी जब सुप्त हुए ॥ (1)

जब निज महिमा सब भूल गए
और भूले धरती का वैभव ।
उत्साह लेश न शेष बचा
न बचा शेष कोई गौरव ॥ (2)

ऐसे में हुलसी के तुलसी
इस धरती पर अवतरित हुए ।
फिर व्यक्त उन्ही की लेखनी से
श्री राम के सारे चरित हुए ॥ (3)

रामचरित के साक्ष्य हैं शंकर
शिव प्रमाण स्रष्टा भी शिव हैं ।
शिव ही प्रेरक हैं तुलसी के
मानस के द्रष्टा भी शिव हैं ॥ (4)

जिस रचना के कारण शिव हों
है सत्य वही और सुंदर भी ।
जिस के विस्तारक मारुतसुत
उस का आराधन वंदन भी ॥ (5)

समरसता का ग्रंथ है मानस
हरता हर इक द्वंद्व है मानस ।
मानस प्रबोधकाव्य तुलसी का
शुद्ध करे हर कलुषित अंतस ॥ (6)

है पुण्यधरा यह भारत की
यहां अनुपम निर्मल भक्ति रस ।
तुलसी की लेखनी के द्वारा
उतरा बन रामचरितमानस ॥ (7)

 है चित्रकूट की धन्यधरा
और धन्य वत्सला यह यमुना ।
जिस के घाटों पर गूंज उठी
तुलसी के प्रेम की सुर सरिता ॥ (8)

है धन्य मंदाकिनी की धारा
यह चित्रकूट का धाम धन्य ।
है धन्य आशीष कामदगिरि का
मन का अनुपम विश्राम धन्य ॥ (9)


इसी चित्रकूट के धाम में
राजापुर नाम के गांव में ।
जहां पावन यमुना बहती है
उसी दिव्य परम बिश्राम में ॥ (10)

पंद्रह सौ नवासी विक्रमी संवत
सप्तमी श्रावण शुक्ल पक्ष ।
नवांकुर के इक गुंजन से
गूंजा इक घर का प्रसव कक्ष ॥ (11)

हुलसी की सूनी गोद भरी
हैं धन्य उपस्थित लोग सभी ।
नवजात शिशु की वाणी से
जिस ने भी राम की गूंज सुनी ॥ (12)

बहती वायु की सरसर ने
बहती नदिया के कलकल ने ।
उस अम्बर ने इस जलथल ने
वह गूँज सुनी यमुना जल ने ॥ (13)

इस सरसर ने इस कलकल ने
जीवन को नया आयाम दिया ।
अनुगूंजित गूंज ने नवागत को
रामबोला का इक नाम दिया ॥ (14)

फिर गगनचुम्बी वह इक गुंजन
गूँजा बन वंदन और अर्चन ।
कहीं अधरों पर कुछ गीत खिले
कहीं पांवों में थिरकन और नर्तन ॥ (15)

 गायन नर्तन वंदन अर्चन
पल में हो गया रुदन क्रंदन ।
वात्सल्य विहीन हुआ नंदन
हुलसी का छुटा भव बंधन ॥ (16)

चिरकाल रहा न पितृ साथ
पिता आत्मराम कर गए प्रस्थान ।
राम बोला राम सहारे अब
जो था सनाथ अब हुआ अनाथ ॥ (17)

दासी चुनिया माँ बाप बनी
विधि की किन्तु इस से भी ठनी ।
चुनिया बिछुड़ी, विपदा की खडग
इक बार पुनः बालक पे तनी ॥ (18)


हर मन में पीड़ा सुबक रही
हर आंख से अश्रुधार बही ।
रवितन्या मौन बही फिर भी
कुछ तो कहती थी कालिंदी ॥ (19)

करुणामूरत नरहरिदास
      देते जन जन को नवप्रकाश ।
अंकुर में देखा वट विशाल
रखा बालक के सर पे हाथ ॥ (20)

सब का दाता नाथों का नाथ
रख दे यदि किसी सर पे हाथ ।
नररूप हरि का जब हो साथ
रहे रामबोला कैसे अनाथ ॥ (21)

निर्देशक के संकेतों पर होता है सारा निर्धारण ।
अस्तित्व गुरु बन आता हैं संभाव्य बनाने को संभव ॥ (22)

चैतन्य शक्तियां करती हैं विश्लेषण मंथन और चिंतन ।
मानव उत्थान के हेतु ही होता है साधक कोई चयनित ॥ (23)

नरहरिदास को ऐसे ही संकेत मिले निर्देशक के ।
वे अभिवावक और गुरु बने उस अति विलक्षण बालक के ॥ (24)

नरहरिदास ने बालक में देखी अपार संभावना ।
भारत भविष्य की फिर लिख दी अति उज्ज्वल इक प्रस्तावना ॥ (25)

है धन्य वो यमुना तीर जहां
इक शिष्य का नवसन्धान हुआ ।
है धन्य वो शिष्य जिसे गुरु ने
वृंदा सेवा अभियान दिया ॥ (26)

जो जगतपावनी जगवंदित
जो करती निर्मल आनंदित ।
रामबोला में उसी तुलसी ने
किया दिव्य भाव को संचारित ॥ (27)

तुलसी ने हुलसी भाव से ही
बालक को अपने अंक भरा ।
वात्सल्य भाव से चूम लिया
और दे दी अनुपम निर्मलता ॥ (28)

जो गंग तरंग सी है निर्मल जिस से भक्ति श्रृंगार ।
उसी कृष्ण जीवनी तुलसी का गुरुशिष्य करे जयकार ॥ (29)

तुलसी प्रतिरूप हुआ बालक जो देखा नरहरिदास ।
रामबोला का नामकरण कर गए तुलसीदास ॥ (30)

तुलसी की प्रथम मात हुलसी
दूजी माता दासी चुनिया ।
फिर विश्वपूजिता तुलसी मां
चौथी सूर्यसुता यमुना ॥ (31)

यमुना तो वत्सल भाव से नित
सुत को नहला करती निर्मल ।
और नित्य प्रति नन्हा साधक
करता मां यमुना का पूजन ॥ (32)

कल कल बहती वह कालिंदी
पल पल जीवन संचार करे ।
तुलसी मन में यमुना मैय्या
शुद्ध निर्मल हर पल भाव भरे ॥ (33)

अवतरित हुई फिर रामकथा कालिंदी के तीर ।
यमुना की आंखें सजल तुलसी नैना नीर ॥ (34)


यमुना के हर घाट पर करते राम गुणगान ।
गुरु शिष्य में रोपते प्रेम बीज प्रिय जान ॥ (35)

मारुतिनंदन के प्रति जागी श्रद्धा अपार ।
तुलसीदास को मिल गया रामदूत आधार ॥ (36)

तुलसी के गुण शील का खूब हुआ विस्तार ।
चर्चा गुरु के शिष्य की फैली यमुना पार ॥ (37)

यमुना के उस पार था एक अनोखा गांव ।
दीनबंधु पाठक सुता रत्नावली का धाम ॥ (38)

पाठक-नरहरिदास में हुआ गुप्त विमर्श ।
तुलसी और रत्नावली बंधे प्रणय के सूत्र ॥ (39)

तुलसी कुछ व्याकुल व्यथित हुए
कुछ चिंतित शंकित भ्रमित हुए ।
क्यों रोके पथ कोई 'रत्ना'
अंतस में शब्द यह ध्वनित हुए ॥ (40)

क्यों उलझूं कंचन कामिनी से
जब राम के पथ का पथिक हूँ मैं ।
मृगनयनी के क्यों स्वप्न मैं लूं
जब कमल नयन से द्रवित हूँ मैं ॥ (41)

ऐसे में गुरुदेव को किया जो तुलसी याद ।
अंतस के गहरे तल में गूँजा अनुपम नाद ॥ (42)

सब निश्चित और निर्धारित जब
राम आज्ञा से संचारित जब ।
फिर क्यों न सब स्वीकार करें
ईश कृपा से सब संचालित जब ॥ (43)

उस परम प्रबंधक के द्वारा
ही जीवन रूपी खेल हुआ ।
उस के ही दिव्य इशारे से
तुलसी रत्ना का मेल हुआ ॥ (44)

प्रथम बार जो देखा रत्ना रूप अपार ।
मंत्रमुग्ध तुलसी हुआ भूला सब संसार ॥ (45)

मधुर काव्यमय वाणी में थी अद्भुत झंकार ।
तुलसी प्रेम के सागर में डूब गए मझधार ॥ (46)

रत्न रत्ना रत्नावली प्रिय तुलसी के नाम ।
भूल गए हर शब्द वे याद रहे त्रिनाम ॥ (47)

रत्ना की आंखों में तुलसी
कुछ दिव्य देखते रहते थे ।
कोई छटा मधुर मनोहर सी
कुछ भव्य देखते रहते थे ॥ (48)

देख के लगता आंखों में
कहीं छुपा हुआ कुछ और भी है ।
कुछ देख लिया कुछ जान लिया
अज्ञात मगर कुछ और भी है ॥ (49)

तुलसी मन मंदिर रहे रत्ना मूर्तिमान ।
भीतर बाहर देखते ही मंद मुस्कान ॥ (50)

रत्ना के गुण शील के तुलसी हुए मुरीद ।
रात दिवस वो चाहते उसी चाँद का दीद ॥ (51)

रत्नावली के रूप पर तुलसी हुए आसक्त ।
काम काज सब बिसरे ऐसे हुए अनुरक्त ॥ (52)

कालिंदी की कलकल में
वायु की हर सर सर में ।
वे छबी देखते रत्ना की
श्री यमुना के पावन जल में ॥ (53)

रत्ना  के आदर्श तुलसी
प्रेम पूजा दर्श तुलसी ।
तुलसी जीवन लक्ष्य उस के
हर्ष और उत्कर्ष तुलसी ॥ (54)

जब से रत्ना को मिला तुलसी का संसर्ग ।
उस को अपना सा लगे हर व्यक्ति हर वर्ग ॥ (55)

जब से पहना कंठ में रत्ना तुलसी हार ।
रोम रोम पावन विमल श्वास श्वास आभार ॥ (56)

रत्नावली तो हो गई प्रियतम के अनुरुप ।
पूरक भी अनुकूल भी तुलसी का ही रूप ॥ (57)

तुलसी रत्ना से कहे राम ही मेरा लक्ष्य ।
रत्ना कहती पिय से तुम जीवन उद्देश्य ॥ (58)

रत्ना तुलसी को भजे तुलसी भजे श्री राम ।
दोनों में प्रभु प्रेम की बहे धार अभिराम ॥ (59)

फिर ऐसी घटना घटी इक दिन
बृद्ध पाठक कुछ अस्वस्थ हुए ।
रत्ना को मिलने को व्याकुल
कुछ चिंतित और कुछ त्रस्त हुए ॥ (60)

जब मिला संदेशा रत्ना को
झट यमुना के उस पार गई ।
पिता दर्शन और सेवा पा कर
संतुष्ट धन्य और तृप्त हुई ॥ (61)

तुलसी लौटे पर रत्ना की
न दिखी भव्य अनुपम मूरत ।
न दिखा दिव्य आलोक कहीं
न दिखी अलौकिक वह सूरत (62)

 घर में वो प्रेम की छांव कहाँ
वो नेह का अनुपम धाम कहाँ ।
विरही मन चिंतित औऱ व्याकुल
अब चैन कहाँ आराम कहाँ ॥ (63)

बिन प्रियतम के अब कैसे रहूं
किस से मैं मन की बात कहूँ ।
अब कौन बंधाये धीर मुझे
कैसे यह विरह की पीर सहूँ ॥ (64)

जब पता चला रत्नावली गई पिता के पास ।
तुलसी को ऐसे लगा ज्यूँ दिन में हो गई रात ॥ (65)

सुना है रत्ना चली गई यमुना के उस पार ।
फिर भी तुलसी खोज रहे गली गली हर द्वार ॥ (66)

संभव है वो दीख पड़े किसी गली या किसी घाट पर ।
यमुना के उस ओर को जाते किसी भी पथ पर किसी बाट पर ॥ (67)

बस्ती के हर चौराहे में यमुना के हर घाट घाट में ।
प्रीत को खोजे आतुर प्रेमी गली गली हर बाट बाट में ॥ (68)

अस्ताचल को जाता दिनकर
गुपचुप पूछे कहाँ है प्रियवर ।
यमुना का हर घाट भी पूछे
कहाँ छुपी है कविता कविवर ॥ (69)

गुमसुम गुमसुम संध्या बीती आई काली रात ।
बादल छाए आसमान में आंधी और बरसात ॥ (70)

झमझम ऐसा बरसा पानी बरसी मूसलधार ।
यमुना के इस और भी पानी जलथल है उस पार ॥ (71)

बाहर जल का उग्र रूप है
भीतर अग्नि शोर मचाये ।
बाहर यम का पहरा देखो
भीतर कामिनी पास बुलाये ॥ (72)

यमुना के उत्पाती जल ने दिये किनारे तोड़ ।
पिया मिलन की प्रेमी मन में लगी है फिर भी होड़ ॥ (73)

पाप है क्या, क्या पुण्य हुआ
मन मस्तिष्क फिर शून्य हुआ ।
पाना ही है रत्न अमोलक
सोचा, कूदा धन्य हुआ ॥ (74)

रत्ना हेतु कालिंदी में कूदे तुलसीदास ।
रत्ना जपते रत्ना गाते लहर लहर हर श्वास ॥ (75)

गतिमान अनिरुद्ध हो रहा
लहर लहर अवरुद्ध हो रहा ।
रत्ना हेतु रवितन्या से
श्वास श्वास इक युद्ध हो रहा ॥ (76)

मरते जीते, जीते मरते हुए जो यमुना पार ।
तुलसीदास को ऐसा लगा ज्यूँ जीत लिया संसार ॥ (77)

उन्मादी आतुरता जीती मर्यादा पर हार गई ।
निश्चय जीता, लग्न भी जीती रीति लज्जा हार गई ॥ (78)

 अभी तो यमुना पार हुई है किन्तु मंज़िल दूर है ।
रात की कालिख सोख ले पल में कहाँ छुपा वो नूर है ॥ (79)

एक ही इच्छा एक कामना पिया मिलन की आस ।
चिर परिचित पगडंडी पर फिर दौड़े तुलसीदास ॥ (80)

नीति सम्मत वेश नहीं है
तन की सुध बुध शेष नहीं है ।
पिया दरश की चाह है मन में
जग की परवाह लेश नहीं है ॥ (81)

भटकता कोई पुजारी जैसे मंदिर पा गया ।
वैसे ही तुलसी समक्ष पाठक निकेतन आ गया ॥ (82)

दीवार को फिर फांद कर वो प्रेम के आवेश में ।
दूसरी मंज़िल पे पहुंचा क अनोखे वेग में ॥ (83)

फांद कर खिड़की वो झट से अन्तःपुर में आ गया ।
सामने रत्नावली का प्रेम दर्शन पा गया ॥ (84)

जिस के कारण युद्ध जीता सामने वो प्रियतमा है ।
तुलसी की रत्नावली है प्रेम अर्चन कामना है ॥ (85)

सामने मंज़िल खड़ी है फिर भी क्यों भ्रमजाल है ।
क्या हुआ है, क्यों यह दुविधा भ्रमित सा अंतराल है ॥ (86)

दिल की धड़कन रुक गई है गुम है श्वासों की भी सरगम ।
क्षुब्ध सी रत्नावली है मूक दर्शक से हैं प्रियतम ॥ (87)

देखी तुलसी की दशा रत्ना हुई क्षुब्ध ।
अंतस के गहरे तल में जागा सोया बुध ॥ (88)

मिट्टी की इस देह से क्योंकर प्रीति नाथ ।
जड़ में भी तो चेतन बन बैठे हैं रघुनाथ ॥ (89)

त्यागी लज्जा, रीति, नीति नश्वर देह से ऐसी प्रीति ।
नेह जो होता राम से तो मिट जाती भव भीति ॥ (90)

खिची हुई मर्यादा रेखा
वृष्टि झंझावात न देखा ।
रीति अनीति कुल मर्यादा
समय असमय का करते लेखा ॥ (91)

रत्ना कुछ भी समझ न पाए
शब्द हैं अपने या हैं पराये ।
मैं बोलूं या कोई शक्ति
मुझ से सारी बात बुलाये ॥ (92)

रत्ना की आंखों में झलके गुरुवर नरहरिदास ।
डूबे दुख और ग्लानि में स्तब्ध से तुलसीदास ॥ (93)

दिशा दिशा में गूंजते रत्ना के सब वाक ।
तुलसी को धिक्कारते धरती और आकाश ॥ (94)

कामी और निर्लज्ज घना हूँ
स्वयं वे ही मैं  भार बना हूँ ।
अपने ही उत्थान के पथ पर
अवरोधक बन स्वयं तना हूँ ॥ (95)

यह जीना भी क्या जीना है
इस से तो मरना अच्छा है ।
निर्लज्जता के बोझ से बेहतर
धरती में गढ़ना अच्छा है ॥ (96)

सुख दुख के इस झूले में
बोलो कब तक झूलोगे ।
आशा और निराशा में
कब तक यूं ही डोलोगे ॥ (97)

भूले संयम लज्जा करुणा
याद रहे न राम तुम्हे ।
काम को तुम क्या भोगोगे
भोग गया है काम तुम्हे ॥ (98)

लाज बची कुछ शेष अगर है
मर्यादा कुछ लेश अगर है ।
गुरु रत्ना के शब्द न भूलो
श्रद्धा का उन्मेष अगर है ॥ (99)

जाने क्या प्रारब्ध हुए
तुलसी स्तंभित स्तब्ध हुए ।
ग्लानि शौक और चिन्ता को
पल में वो उपलब्ध हुए ॥ (100)

क्या क्या नहीं दिखाया मुझ को
अब तक बहुत नचाया मुझ को ।
अब तो शरण में ले लो राम
अब तक बहुत बनाया मुझ को ॥ (101)


इस घटना ने दे दिया नूतन इक अभियान ।
अनजाने अनचीन्हे पथ पर तुलसी किया प्रयाण ॥ (102)

घायल तन है आहत मन है
किन्तु भीतर एक ही प्रण है ।
सब कुछ मेरा राम को अर्पित
राम ही मेरा जीवन धन है ॥ (103)

एक लक्ष्य और एक कामना
एक ही हठ और एक प्रार्थना ।
शरणागत अब शरण में ले लो
पल पल क्षण क्षण यही याचना ॥ (104)

धरती ऊपर गगन मंडल में
बीहड़ वन में गहरे जल में ।
आर्तनाद गूंजे तुलसी का
हर पर्वत में हर समतल में ॥ (105)

मुझ सा अधम न तुम सा पावन
मैं भुजंग हूँ, तुम हो चंदन ।
तुम से लिपट रहा रघुराई
कलुष हरो अब कर दो निर्मल ॥ (106)

क्षत विक्षत सा घायल तन है
कंटक दुर्गम बीहड़ वन है ।
निर्जन पथ पर भक्त राम का
भाव विव्हल सा इक क्रंदन है ॥ (107)

आनंद सिंधु प्यारे राम
तुम ने दुष्ट भी तारे राम ।
तुलसी को भी पार लगा दो
वो भो तेरे सहारे राम ॥ (108)

इधर पुकारे राम को तुलसी मन अभिराम ।
और उधर रत्ना जपे तुलसी का ही नाम ॥ (109)

तुलसी सोचें क्यों भला मैं बिसराये राम ।
रत्ना सोचे कटु वचन क्यों कहलाये राम ॥ (110)

रत्ना तुलसी की गुरु तुलसी उस के राम ।
रत्ना तुलसी को भजे तुलसी भजे श्री राम ॥ (111)

यमुना के संग बढ़ रहे तुलसी जपते राम ।
और उधर रत्नावली पथ निहारे सुब-शाम ॥ (112)

तुलसी को अब रात दिन राम मिलन की चाह ।
और रत्न आठों पहर देखे प्रियतम राह ॥ (113)

रत्ना तुलसी को भजे तुलसी भजे श्री राम ।
इक दूजे का शुभ सदा चाहें वो अभिराम (114)

राम नाम की वेणु बजाते
राम ही रटते, राम ही गाते ।
पहुंचे तीरथ राज कवि
पल पल नैनन नीर बहाते ॥ (115)

प्रयागराज की धरती पर पहुंचे तुलसीदास ।
पावन धूरि शीश धरि गदगद पुलकित गात ॥ (116)

स्मरण हुई फिर राम कथा गुरुवर का संवाद ।
संगम तट पर बरबस ही आये रघुवर याद ॥ (117)

त्रिवेणी के नीर से किया स्नान कविराय ।
मन में उपजा अतुल सुख हनुमंत हुए सहाय ॥ (118)

राम स्नेही को सदा राम दूत का संग ।
तन पुलकित गदगद सदा मन में पुलक उमंग ॥ (119)

गंगा यमुना सरस्वती दीने शुभ आशीष ।
द्रवित तुलसी पर हुए कृपा सिंधु जगदीश ॥ (120)

तीरथराज ने हर लिए तुलसी के सब द्वंद्व ।
रोम रोम पावन विमल मन अनुपम आनंद ॥ (121)

संगम तट पर करते मंथन
पल पल सुमिरण हर पल वंदन ।
रत्ना की भी पीर हरो प्रभु
श्वास श्वास तुलसी का अर्चन ॥ (122)

हर ली मेरी शंका उलझन
निर्मल है अब मन का दर्पण ।
रत्ना को भी राह दिखा दो
रामदूत हे, हे रघुनंदन ॥ (123)

बहती हवा ने दे दिया पिया संदेशा जाय ।
रत्ना कोकिल कूक कर पिया पिया धुन गाए ॥ (124)

दग्ध धरा का ताप यूँ हर ले कोई फुहार ।
रत्ना का संताप भी हरे प्रेम रस धार ॥ (125)

रत्ना को ऐसे लगा पिय है मेरे पास ।
श्वास श्वास में बांधते परम मिलन की आस ॥ (126)

हर जन की विपदा हरो विनति सुनो महाराज ।
मारूतिसुत से प्रार्थना लागे करन कविराज ॥ (127)

हे धरती के सुल्तान सुनो
हे नांदी के हनुमान सुनो ।
हर मन में राम की गूंज भरो
हे तुलसी के भगवान सुनो ॥ (128)

जाना अनजाना पाप हरो
हर जन का तुम संताप हरो ।
हम आये तेरी शरनाई
हर बाधा हर इक श्राप हरो ॥ (129)

सकल लोक हित अर्चना करते दिन और रात ।
निर्मल कर दो हर अंतस हे रामदूत हे तात ॥ (130)

तुम बिन अपना कोई और नहीं
बिन तेरे की भी ठौर नहीं ।
हर मन का तमस हरो देवा
तेरी लौ बिन होती भोर नहीं ॥  (131)

हे अंजनीसुत केसरीनंदन
काटो सब के ही भव बंधन ।
अनुराग राम का मन उपजे
अनुकंपा कर दो शिवनंदन ॥ (132)

हनुमान की वंदना करते अति अनुराग ।
मारुति की प्रेमनिधि पायें तुलसीदास ॥ (133)

हैं धरती और आकाश तेरे और राम रसायन पास तेरे ।
पथ राम दर्श का दिखलाओ हे बजरंगी हम दास तेरे ॥ (134)

रघुनंदन के तुम हो प्यारे
रामद्वार के तुम रखबारे ।
आशीष हमें भी दो स्वामी
हम भीख मांगते बंजारे ॥ (135)

 पा कर दिव्य संकेत तब सुमिरि उमा महेश ।
तुलसीदास संगम तट पर धारा साधु वेश ॥ (136)

अब चलो चलें शिवांगन में
उस दिव्य धरा मुक्तांगन में ।
काशी नगरी का स्फुरण हुआ
रोमांच हुआ तुलसी मन में ॥ (137)

तीरथ राज प्रयाग से तुलसी किया प्रयाण ।
रामभक्त के संग चले रामदूत हनुमान ॥ (138)

 लोक धर्म का मर्म बताते
सब को सांझी राह दिखाते ।
शिवनगरी को चलें हैं तुलसी
शिव की अनुपम महिमा गाते ॥ (139)

हे नीलकंठ हे गंगाधर
हे त्रिपुरारी हे शिवशंकर ।
देवों के देव, हे महादेव
प्रणम्य तुम्ही हो करुणाकर ॥ (140)

तुम राम के शिव, शिवराम तुम्ही
दुखभंजन तुम, सुखधाम तुम्ही ।
तुम रामचरित मानस राखा
सर्वोत्तम रचनाकार तुम्ही ॥ (141)

महादेव को शीश निवाते
काशी का गुणगान सुनाते ।
मुक्ति की धरती पर पहुंचे।
तुलसीदास अनुपम सुख पाते ॥ (142)

यह नगरी उमापति की है
यह धरती प्रेम पति की है ।
इस धरा में है अमरत्व छुपा
यह भूमि परम गति की है ॥ (143)

हर घाट घाट आभास तेरा
काशी नगरी में बास तेरा ।
है स्पर्श तेरा गंगाजल में
है जन जन में विश्वास तेरा ॥ (144)

सुमिरे शिव और याज्ञवल्क्य कागभुशुण्डि हनुमान ।
मानसरोवर घाट पर तुलसी लागा ध्यान ॥ (145)

मानस के गहरे तल में उपजा अति अनुराग ।
तन पुलकित मन प्रेमवश कागभुशुण्डि साकार ॥ (146)

रामभक्त खग को किया तुलसी ने प्रणाम ।
भक्तशिरोमणि से मिला रामभक्ति वरदान ॥ (147)

बार बार यह प्रार्थना करता हूँ हे नाथ ।
सदा प्रिय मुझ को लगें दीनबंधु रघुनाथ ॥ (148)

तुझ से ही आशीष पा गरुड़ हुए निःशंक ।
मुझ को भी दो प्रेमनिधि रामभक्त श्रीसंत ॥ (149)

राम नेह बरसे सदा कृपा करें जगदीश ।
कागभुशुण्डि ने दिया तुलसी को आशीष ॥ (150)

शिव की जटा से उतरी धारा
करती तुलसी मानस सींचित ।
राम प्रीति हृदय में उतरी
कलिकलुष कोई शेष न किंचित ॥ (151)

जैसे गंगा ताप हरे सब
विपदा व्याधि पाप हरे सब ।
तुलसी के अंतस में उपजी
राम कथा संताप हरे सब ॥ (152)

रामकथा की गंगधार से तुलसी करें निहाल ।
काशी के हर जन ने पहनी सियाराम जयमाल ॥ (153)

इत रत्ना उन को याद करे
उत शिव से वो संवाद करें ।
हर जन के दुख हरने के लिए
तुलसी शिव से फरियाद करें ॥ (154)

हे महादेव हे शिवशंकर
तम हरो जगत का हे दुखहर ॥

चिंता व्याधि का कलुष हरो
हृदय का अमृत कलश भरो ।
रत्ना को अपनी शरण में लो।
हे अनुकंपा के रत्नाकर ॥

हे महादेव...…..................

काशी नगरी में बास तेरा
हर हृदय में है आवास तेरा ।
आभास तेरा हो जन जन को
आशीष सभी की दो आ कर ॥

हे महादेव...…....................

प्रभु भक्ति पथ प्रशस्त करो
इस दास पे अपना हस्त धरो ।
अब हो प्रसन्न हे आशुतोष
हे नीलकंठ हे करुणाकर ॥

हे महादेव हे शिवशंकर
तम हरो जगत का हे दुखहर ॥ (155)


हे शशिशेखर हे चंद्रभाल
अब द्रवित हों शंकर दीनदयाल ॥

तेरी दया का पल पल रस बरसे
अनुराग राम का उर उपजे ।
गले में शोभे सियराम माल ॥

संत चरण धूलि से पगा रहे
मन राम चरित में लगा रहे ।
हों साथ सदा हनुमंत लाल ॥

हे शशिशेखर..….…..................

तुम तात मैं बालक हूँ दाता
तेरी कृपा का याचक हूँ दाता ।
अनुकंपा कर दो महाकाल ॥

हे शशिशेखर..….….................. (156)


तुलसी शिव आराधना पहुंची रत्ना पास ।
अंतस के गहरे तल में फैला निर्मल उजास ॥ (157)

सियाराम मय सारा जग जानो
जन जन में उस को पहचानो ।
जन सेवा ही राम की सेवा
तुलसी कहे रत्ना यह मानो ॥ (158)

पिया पास बहुत कुछ ऐसा लगा
जन सेवा का संकल्प जगा ।
सियाराम रूप है जग सारा
कोई ग़ैर नहीं हर एक सगा ॥ (159)

तुलसी आज्ञा शीश पे धरती
रोगी बृद्ध की सेवा करती ।
सब का सदा ही वो शुभ चाहे
हर पीड़ित की पीड़ा हरती ॥ (160)

जन सेवा अभियान में रत्ना हुईं प्रशस्त ।
ग्लानि शोक और सारे ही भ्रम होने लगे फिर पस्त ॥ (161)

तुलसी शुभ आशीष से रत्ना हो गईं शांत ।
हर पल उस के पास अब रहने लगे हैं कांत ॥ (162)

तुलसी मन में एक ही इच्छा
एक ही चाहत एक लग्न है ।
दर्शन रघुनाथ के पाऊं
पल पल क्षण क्षण एक ही धुन है ॥ (163)

सुख दुख को सम जान सहूंगी जैसे रखें बैसे रहूंगी ।
तुलसी हार कंठ में शोभे रत्ना सब से जा के कहूंगी ॥ (164)

तुलसी मन रघुनाथ के दर्शन की है चाह ।
रत्ना मन पिय से जुड़ा नाचे बेपरबाह ॥ (165)

जन सेवा अभियान में रत्ना हुईं प्रशस्त ।
ग्लानि शोक और सारे ही भ्रम होने लगे फिर पस्त ॥ (166)

तुलसी शुभ आशीष से रत्ना हो गईं शांत ।
हर पल उस के पास अब रहने लगे हैं कांत ॥ (167)

जिसे अपनी शरण में लें दाता
उसे कोई भय न शंका हो ।
उसे तमस भी देता नव प्रकाश
जिस पर प्रभु की अनुकंपा हो ॥ (168)

जगबंदित तुलसी से प्रसन्न
सब जड़ चेतन भव भूत सभी ।
इक प्रेत ने शुभ आशीष दिया
हनुमंत के दर्शन होंगे अभी ॥ (169)

फिर संकटमोचन ने दिए तुलसीदास को दर्श ।
कविराज को दे दिया नवचेतनमय उत्कर्ष ॥ (170)

तुलसीदास पर हुए प्रसन्न
मारुतिनंदन संकटमोचन ।
दिव्य आभा से फिर चमक उठे
कविराज के नव पंकज लोचन ॥ (171)

हनुमंत कहें तुम धन्य हुए
तुम पर प्रसन्न रघुनन्दन हैं ।
है जन्म सफल तुलसी तेरा
तूने पाया दिव्य स्पंदन है ॥ (172)

तुम चित्रकूट को गमन करो
वहां दर्श देँगे तुम्हे रघुराई ।
गदगद तुलसी फिर करने लगे
मारुति नंदन की बड़ियाई ॥ (173)

तुलसीदास गुरुदेव को किया बारम्बार प्रणाम ।
तेरी कृपा से हे गुरुवर दिये आज दर्श हनुमान ॥ (174)

राम कृपा का मर्म तब समझा नहीं था नाथ ।
राम नाम की महिमा का अब दिखा प्रत्क्षय प्रमाण ॥ (175)

बार बार तेरी वंदना करता हूँ महाराज ।
तेरी कृपा का प्रत्यक्ष फल देखा मैने आज ॥ (176)

 शिव नगरी से तुलसी ने किया चित्रकूट प्रयाण ।
कहते सुनते राम कथा गाते राम गुण गान ॥ (177)

जहां सब ने देखी राम छटा
जहां भरत का सब संताप मिटा ।
उस धरती का वंदन सदा
जहां राम भरत का मिलन घटा ॥ (178)

अत्री अनसुईया बास जहां
ऋषि वाल्मीकि आभास जहां ।
 बह चित्रकूट प्रणम्य सदा
सिया राम हरें सब त्रास जहाँ ॥ (179)

धन्य धन्य कामदगिरि आ के बसे जहां राम ।
धन्य चित्रकूट धाम जहां श्री राम किये विश्राम ॥ (180)

धन्य जहां के पशु पक्षी धन्य सभी नर नारी ।
धन्य मंदाकिनी की धारा धन्य धन्य धरा यह सारी ॥ (181)

चित्रकूट प्रवेश पर तुलसी मन आनंद ।
राम घाट पर आते ही पाया परमानंद ॥ (182)

कामदगिरि परिक्रमा करते तुलसीदास ।
पल पल चिंतन राम का श्वास श्वास आभास ॥ (183)

जड़ चेतन में देखते छिपा राम अनुराग ।
धन्य धन्य कविराज तुम धन्य तुम्हारे भाग ॥ (184)

लीलाभूमि श्री राम की करे प्रेम संचार ।
सजल नयन कविराज के करें प्रकट आभार ॥ (185)

कामदगिरि प्रदक्षिणा करते तुलसीदास ।
देख मनोहर दृश्य एक मुग्ध हुए कविराज ॥ (186)

देखे राजकुंवर अति उत्तम
घुड़सवार मनमोहक अनुपम ।
धनुषबाण हाथों में शोभे
उज्ज्वल तमहर जैसे दिनकर ॥ (187)

मुग्ध हुए छवि देख कर मन में परम उल्लास ।
अंतस का सब तिमिर हटा उतरा परम उजास ॥ (188)

मूंद नयन वहीं बैठ गए भूले तुलसी अपान ।
अंतस के गहरे तल में प्रकट हुए हनुमान ॥ (189)

देख कर जिन की छबि मुग्ध हुए हो तात ।
राजवेश में लखन सहित वो ही थे रघुनाथ ॥ (190)

चूक गए तुम तुलसी पहचाने नहीं नाथ ।
धीर धरो कल प्रातः फिर दर्श देंगे रघुनाथ ॥ (191)

प्रातः राम घाट पर तुलसी
करते राम नाम आराधन ।
हर मस्तक पर तिलक लगाते
प्रेम भाव से घिस कर चंदन ॥ (192)

तेज पुंज बन राम लखन तब
प्रकट हुए देने को दर्शन ।
नयन मूंदे देखा तुलसी को
विनय भाव से घिसते चंदन ॥ (193)


घिस कर चंदन चिन्ह बना दो
बाबा हम को तिलक लगा दो
हम भी कब से पंक्ति में हैं
मस्तक पर इक छाप जगा दो ॥ (194)

 घिस कर तिलक बनाते तुलसी
राम नाम धुन गाते तुलसी ।
आंख मूंद कर प्रेम भाव से
मस्तक तिलक सजाते तुलसी ॥ (195)

चूक जाएंगे तुलसी जो सोचा हनुमंत ।
शुक रूप में प्रकट हुए गाने लगे भगवंत ॥ (196)

चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर ।
तुलसीदास चंदन घिसें तिलक देत रघुवीर ॥ (197)

आंखें खोली जब तुलसी ने
देखे दिव्य मनोहर राम ।
रहे देखते मंत्रमुग्ध से
करुणामूरत आनंदधाम ॥ (198)

तिमिर हटा जन्मों का सारा
अंतस में फैला उजियारा ।
शब्द जिसे कभी कह नहीं सकते
बहने लगी ऐसी रसधारा ॥ (199)

कण कण में जो बस रहा वह आज है मूर्तिमान ।
अपने भक्त को देखता उस का ही भगवान ॥ (200)

मुग्ध हुए छबि देख कर
चंदन तिलक लगाना भूले ।
तन मन की सुधि भूले तुलसी
चरणन शीश निभाना भूले ॥ (201)

अपने हाथ से स्वयं राघव ने
मस्तक पे चंदन को सजाया ।
अंतर्ध्यान होने से पहले
तुलसी को भी तिलक लगाया ॥ (202)

धन्य धन्य कविराज तुम धन्य तुम्हारे भाग ।
माथे तिलक लगाते तुम को राघव अति अनुराग ॥ (203)

चित्रकूट के कण कण में बहा राम अनुराग ।
जिस ने जितना जान लिया उस के उतने भाग ॥ (204)

रत्ना को ऐसा लगा वो है शांत स्वरूप ।
आनंदमय दुविधा रहित प्रियतम का ही रूप ॥ (205)

कोई कहे वो रंक है कोई कहे वो भूप ।
रत्ना दोनों से परे तुलसी के अनुरूप ॥ (206)

तुलसी के अंतर्मन में फिर प्रकट हुए हनुमान ।
अवधपुरी की ओर अब तात करो प्रयाण ॥ (207)

पा कर दिव्य संकेत तब चले अयोध्या धाम ।
जन्मभूमि के दर्शन हित आरम्भ किया अभियान ॥ (208)

अवधपुरी के नाथ ने जब से मुझे बुलाया है ।
तब से पुलकित तन मन मेरा रोम रोम हरषाया है ॥ (209)

हनुमंत की आज्ञा पा गमन किया महाराज ।
राम नाम की अलख जगाते पहुंचे तीरथराज ॥ (210)

त्रिवेणी के घाट पर मन में गूंजा नाम ।
सुख की सब भटकन मिटी तुलसी भये सुखधाम ॥ (211)

यज्ञवल्यक के संग संग प्रकट हुए भारद्वाज ।
तुलसी के मन में बजे कितने ही सुरसाज ॥ (212)

राम नेह बरसे सदा तुम पर तुलसीदास ।
सदा प्रसन्न तुम पर रहें अवधपुरी के नाथ ॥ (213)

यज्ञवल्यक भारद्वाज से पाया शुभ आशीष ।
रोम रोम में बस रहे तुलसीदास के ईश ॥ (214)

सूकर क्षेत्र में सुना जो राम कथा प्रसंग ।
माघ मेला प्रयाग में वही कथा सत्संग ॥ (215)

कैसा शुभ संयोग है कैसी अद्भुत कृपा ।
देश काल से मुक्त है तुलसी रघुवर कथा ॥ (216)

माघ मेला प्रयाग में सुना राम गुणगान ।
नमन कर गुरुदेव को किया काशी प्रयाण ॥ (217)

जग मंगल हेतु खोज रहे शिव भावी रचनाकार ।
तुलसी पहुंचे काशी, शिव संकल्प हुआ साकार ॥ (218)

तुलसी के अंतस में उतरी काव्यमयी रसधार ।
निर्झर देववाणी में झरती पद्य रचना हुई साकार ॥ (219)

अपने में रचना इतराई
है कौन जनक कौ है माई ।
है नमन मेरा कवि को जिस ने
मुझे शब्दमाल है पहनाई ॥ (220)

जो दिवस को रचते कविराज वो रात लुप्त हो जाये ।
जो निराकार साकार हुआ आश्चर्य गुप्त हो जाये ॥ (221)

अगले दिन भी यही हुआ फिर घटा यह बारम्बार ।
तुलसी कुछ भी समझ न पायें है क्या इस का आधार ॥ (222)

अष्ट रात्रि सपने में शिव ने संदेश दिया ।
निज भाषा में काव्य रचो कवि को आदेश दिया ॥ (223)

नींद उचट गई तुलसी की वे उठ कर बैठ गए ।
उमा सहित वहाँ शिवशंकर तत्क्षण ही प्रकट हुए ॥ (224)

है जन्म सफल तुलसी तेरा तेरा होना धन्य हुआ ।
रामचरित रचने हेतु ही तेरा जन्म हुआ ॥ (225)

तुम जाओ अयोध्या तात अभी
और जन भाषा में चरित रचो ।
जगबंदित होगी कृति तेरी
जन जन में राम का नेह भरो ॥ (226)

रगघुनंदन के चरित की महिमा होगी अपार ।
सामवेद सम होगी तुलसी रचना तुम्हार ॥ (227)

शिव आशीष जो बरसा जी भर
रामकाव्यमय तुलसी अंतस ।
अन्तर्मन में गूँजे रह रह
अजर अमर दो पावन अक्षर ॥ (228)

रामचरितमानस रचने कवि चले अयोध्या धाम ।
सकल लोकहित चल पड़े रामजन्म सुखधाम ॥ (229)

जहां पावन सरयू बहती है जहां जन्मभूमि सुखधाम है ।
उस मोक्षदायिनी अयोध्या को अब बारंबार प्रणाम है ॥ (230)

जिस के रक्षक हनुमंत है
जहां भक्ति लीन हरि संत हैं ।
है नमन सदा उस धरती को
जहां तुलसी के भगवंत हैं ॥ (231)

जहां रामराज्य का वरण हुआ
और रामकाव्य संचरण हुआ ।
उस धारा का पूजन और अर्चन
      जहां रामायण अवतरण हुआ ॥ (232)

      जहां ठुमक चले चारों भाई
      और प्रेम मुदित कौशल्या माई ।
      उस धूलि को मस्तक पे धारो
      जहां धूलि सने थे रघुराई ॥ (233)

      माँ कौशल्या की गोद भरी
      जहां बालरूप में प्रकट हरि ।
      जहां काग ने पाई परमगति
      प्रणम्य सदा वो अवधपुरी ॥ (234)

      जहां अगणित दीपों की माला
      सजी राघव के अभिनंदन में ।
      आनंदमयी वह अवधपुरी
      हर पल बसती रघुनन्दन में ॥ (235)

      त्रेतायुग में रामजन्म के समय थे जो भी योग ।
      संबत सौलह सौ इकतीस में बने वही संयोग ॥ (236)

      रामनवमी के दिन सुबह पा कर शिव आशीष ।
      मानस का अवतरण हुआ सरयु नदी के तीर ॥ (237)

      बाल अयोध्या अरण्य और किष्किंधा सुंदर कांड ।
      लंका उत्तर कांड से रामायण ब्रह्मांड ॥ (238)

      सप्तकांड यह मानस के हैं सप्तसिंधु समान।
      हर इक की महिमा अनंत दिव्य राम गुणगान॥ (239) 

      दो वर्ष महीने सात छब्बीस दिन प्रमाण ।
      रामविवाह के दिन हुआ सम्पूर्ण अभियान ॥ (240)

      सकल विश्व पर तुलसी ने ऐसा किया उपकार ।
      राम नेह का दे दिया दुनिया को आधार ॥ (241)

      रामजन्म के दिन हुई राम कथा प्रारम्भ ।
      राम विवाह पर हो गया पूरन मानस ग्रंथ ॥ (242)
     
      तुलसी तो लेखनी के द्वारा शिव उमा कथा प्रसंग कहें ।
      और उधर रत्नावली हर घड़ी पिया के संग रहे ॥ (243)

      तुलसी की लेखनी के द्वारा इत मानस का अवतरण हुआ ।
      और उधर रत्नावली में दिव्य लेखन का संचरण हुआ ॥ (244)

      रत्ना भी लेखनी के द्वारा कभी अंतकरण के भाव कहे ।
      कभी साधना पथ संकेत रचे कभी नीति सम्मत वाक्य कहे ॥ (245)

      रत्ना पिय आशीष से पाया राम अनुराग ।
      तुलसी भव भीती मिटी मन अनुपम विश्राम ॥ (246)

      रत्ना तुलसी की गुरु तुलसी उस के राम ।
      दोनों प्रेम के रूप हैं दोनों हैं सुखधाम ॥ (247)

      रामायण को जानिए प्रकट रूप जगदीश ।
      प्रेममय पावन सदा तुलसीदास के ईश ॥ (248)

      मन के कलुष मिटती मानस
      अंतररोग मिटाती मानस ।
      निराकरण कर शंका का
      अद्भुत रस बरसाती मानस ॥ (249)

      गुरु की माहिमा गाती मानस
      समता भाव जागती मानस ।
      जीवम की हर इक व्याधि का
      निराकरण कर जाती मानस ॥ (250)


      चुप्पी में ले जाती मानस
      सब को ही अपनाती मानस ।
      पेचीदा और कठिन मनुज को
      सरल सहज कर जाती मानस ॥ (251)

      प्रेम पवन बन आती मानस
      जीवन पर्व बनाती मानस ।
      मन के गहरे घावों पर भी
      मरहम दिव्य लगाती मानस ॥ (252)

      तुलसी ने जग को दिया राम नेह आधार ।
      सकाल विश्व में हो रही कविराज जयकार ॥ (253)

      तुलसी तेरे नाम की पहनी कंठ जयमाल ।
      जय हो तेरी नाथ सदा जय हुलसी के लाल॥  (254)
...................................कपिल अनिरुद्ध 



       


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