तुलसी
रत्ना
के राम
सद्ग्रन्थ सभी जब लुप्त हुए
दर्शन
सारे ही गुप्त हुए ।
जब
चेतन शून्य हुआ मानव
आलोक
सभी जब सुप्त हुए ॥ (1)
जब
निज महिमा सब भूल गए
और
भूले धरती का वैभव ।
उत्साह
लेश न शेष बचा
न
बचा शेष कोई गौरव ॥ (2)
ऐसे
में हुलसी के तुलसी
इस
धरती पर अवतरित हुए ।
फिर
व्यक्त उन्ही की लेखनी से
श्री
राम के सारे चरित हुए ॥ (3)
रामचरित
के साक्ष्य हैं शंकर
शिव
प्रमाण स्रष्टा भी शिव हैं ।
शिव
ही प्रेरक हैं तुलसी के
मानस
के द्रष्टा भी शिव हैं ॥ (4)
जिस
रचना के कारण शिव हों
है
सत्य वही और सुंदर भी ।
जिस
के विस्तारक मारुतसुत
उस
का आराधन वंदन भी ॥ (5)
समरसता
का ग्रंथ है मानस
हरता
हर इक द्वंद्व है मानस ।
मानस
प्रबोधकाव्य तुलसी का
शुद्ध
करे हर कलुषित अंतस ॥ (6)
है
पुण्यधरा यह भारत की
यहां
अनुपम निर्मल भक्ति रस ।
तुलसी
की लेखनी के द्वारा
उतरा
बन रामचरितमानस ॥ (7)
है चित्रकूट की धन्यधरा
और
धन्य वत्सला यह यमुना ।
जिस
के घाटों पर गूंज उठी
तुलसी के प्रेम की सुर सरिता ॥ (8)
है
धन्य मंदाकिनी की धारा
यह
चित्रकूट का धाम धन्य ।
है
धन्य आशीष कामदगिरि का
मन
का अनुपम विश्राम धन्य ॥ (9)
इसी
चित्रकूट के धाम में
राजापुर
नाम के गांव में ।
जहां
पावन यमुना बहती है
उसी
दिव्य परम बिश्राम में ॥ (10)
पंद्रह
सौ नवासी विक्रमी संवत
सप्तमी
श्रावण शुक्ल पक्ष ।
नवांकुर
के इक गुंजन से
गूंजा
इक घर का प्रसव कक्ष ॥ (11)
हुलसी
की सूनी गोद भरी
हैं
धन्य उपस्थित लोग सभी ।
नवजात
शिशु की वाणी से
जिस
ने भी राम की गूंज सुनी ॥ (12)
बहती
वायु की सरसर ने
बहती
नदिया के कलकल ने ।
उस
अम्बर ने इस जलथल ने
वह
गूँज सुनी यमुना जल ने ॥ (13)
इस
सरसर ने इस कलकल ने
जीवन
को नया आयाम दिया ।
अनुगूंजित
गूंज ने नवागत को
रामबोला
का इक नाम दिया ॥ (14)
फिर
गगनचुम्बी वह इक गुंजन
गूँजा
बन वंदन और अर्चन ।
कहीं
अधरों पर कुछ गीत खिले
कहीं
पांवों में थिरकन और नर्तन ॥ (15)
गायन नर्तन वंदन अर्चन
पल
में हो गया रुदन क्रंदन ।
वात्सल्य
विहीन हुआ नंदन
हुलसी
का छुटा भव बंधन ॥ (16)
चिरकाल
रहा न पितृ साथ
पिता
आत्मराम कर गए प्रस्थान ।
राम
बोला राम सहारे अब
जो
था सनाथ अब हुआ अनाथ ॥ (17)
दासी
चुनिया माँ बाप बनी
विधि
की किन्तु इस से भी ठनी ।
चुनिया
बिछुड़ी, विपदा की खडग
इक
बार पुनः बालक पे तनी ॥ (18)
हर
मन में पीड़ा सुबक रही
हर
आंख से अश्रुधार बही ।
रवितन्या
मौन बही फिर भी
कुछ
तो कहती थी कालिंदी ॥ (19)
करुणामूरत
नरहरिदास
देते
जन जन को नवप्रकाश ।
अंकुर
में देखा वट विशाल
रखा
बालक के सर पे हाथ ॥ (20)
सब
का दाता नाथों का नाथ
रख
दे यदि किसी सर पे हाथ ।
नररूप
हरि का जब हो साथ
रहे
रामबोला कैसे अनाथ ॥ (21)
निर्देशक
के संकेतों पर होता
है सारा निर्धारण ।
अस्तित्व
गुरु बन आता हैं संभाव्य बनाने को संभव ॥ (22)
चैतन्य
शक्तियां करती हैं विश्लेषण मंथन और चिंतन ।
मानव
उत्थान के हेतु ही होता
है साधक कोई चयनित ॥ (23)
नरहरिदास
को ऐसे ही संकेत
मिले निर्देशक के ।
वे
अभिवावक और गुरु बने उस अति विलक्षण बालक के ॥ (24)
नरहरिदास
ने बालक में देखी
अपार संभावना ।
भारत
भविष्य की फिर लिख दी अति उज्ज्वल इक प्रस्तावना ॥ (25)
है
धन्य वो यमुना तीर जहां
इक
शिष्य का नवसन्धान हुआ ।
है
धन्य वो शिष्य जिसे गुरु ने
वृंदा
सेवा अभियान दिया ॥ (26)
जो
जगतपावनी जगवंदित
जो
करती निर्मल आनंदित ।
रामबोला
में उसी तुलसी ने
किया
दिव्य भाव को संचारित ॥ (27)
तुलसी
ने हुलसी भाव से ही
बालक
को अपने अंक भरा ।
वात्सल्य
भाव से चूम लिया
और
दे दी अनुपम निर्मलता ॥ (28)
जो
गंग तरंग सी है निर्मल जिस से भक्ति श्रृंगार ।
उसी
कृष्ण जीवनी तुलसी का गुरुशिष्य करे जयकार ॥ (29)
तुलसी
प्रतिरूप हुआ बालक जो देखा नरहरिदास ।
रामबोला
का नामकरण कर
गए तुलसीदास ॥ (30)
तुलसी
की प्रथम मात हुलसी
दूजी
माता दासी चुनिया ।
फिर
विश्वपूजिता तुलसी मां
चौथी
सूर्यसुता यमुना ॥ (31)
यमुना
तो वत्सल भाव से नित
सुत
को नहला करती निर्मल ।
और
नित्य प्रति नन्हा साधक
करता
मां यमुना का पूजन ॥ (32)
कल
कल बहती वह कालिंदी
पल
पल जीवन संचार करे ।
तुलसी
मन में यमुना मैय्या
शुद्ध
निर्मल हर पल भाव भरे ॥ (33)
अवतरित
हुई फिर रामकथा कालिंदी के तीर ।
यमुना
की आंखें सजल तुलसी नैना नीर ॥ (34)
यमुना
के हर घाट पर करते
राम गुणगान ।
गुरु
शिष्य में रोपते प्रेम बीज प्रिय जान ॥ (35)
मारुतिनंदन
के प्रति जागी
श्रद्धा अपार ।
तुलसीदास
को मिल गया रामदूत
आधार ॥ (36)
तुलसी
के गुण शील का खूब
हुआ विस्तार ।
चर्चा
गुरु के शिष्य की फैली यमुना पार ॥ (37)
यमुना
के उस पार था एक
अनोखा गांव ।
दीनबंधु
पाठक सुता रत्नावली
का धाम ॥ (38)
पाठक-नरहरिदास
में हुआ
गुप्त विमर्श ।
तुलसी
और रत्नावली बंधे
प्रणय के सूत्र ॥ (39)
तुलसी
कुछ व्याकुल व्यथित हुए
कुछ
चिंतित शंकित भ्रमित हुए ।
क्यों
रोके पथ कोई 'रत्ना'
अंतस
में शब्द यह ध्वनित हुए ॥ (40)
क्यों
उलझूं कंचन कामिनी से
जब
राम के पथ का पथिक हूँ मैं ।
मृगनयनी
के क्यों स्वप्न मैं लूं
जब
कमल नयन से द्रवित हूँ मैं ॥ (41)
ऐसे
में गुरुदेव को किया
जो तुलसी याद ।
अंतस
के गहरे तल में गूँजा
अनुपम नाद ॥ (42)
सब
निश्चित और निर्धारित जब
राम
आज्ञा से संचारित जब ।
फिर
क्यों न सब स्वीकार करें
ईश
कृपा से सब संचालित जब ॥ (43)
उस
परम प्रबंधक के द्वारा
ही
जीवन रूपी खेल हुआ ।
उस
के ही दिव्य इशारे से
तुलसी
रत्ना का मेल हुआ ॥ (44)
प्रथम
बार जो देखा रत्ना रूप अपार ।
मंत्रमुग्ध
तुलसी हुआ भूला
सब संसार ॥ (45)
मधुर
काव्यमय वाणी में थी अद्भुत झंकार ।
तुलसी
प्रेम के सागर में डूब गए मझधार ॥ (46)
रत्न
रत्ना रत्नावली प्रिय
तुलसी के नाम ।
भूल
गए हर शब्द वे याद
रहे त्रिनाम ॥ (47)
रत्ना
की आंखों में तुलसी
कुछ
दिव्य देखते रहते थे ।
कोई
छटा मधुर मनोहर सी
कुछ
भव्य देखते रहते थे ॥ (48)
देख
के लगता आंखों में
कहीं
छुपा हुआ कुछ और भी है ।
कुछ
देख लिया कुछ जान लिया
अज्ञात
मगर कुछ और भी है ॥ (49)
तुलसी
मन मंदिर रहे रत्ना मूर्तिमान ।
भीतर
बाहर देखते वही
मंद मुस्कान ॥ (50)
रत्ना
के गुण शील के तुलसी
हुए मुरीद ।
रात
दिवस वो चाहते उसी
चाँद का दीद ॥ (51)
रत्नावली
के रूप पर तुलसी
हुए आसक्त ।
काम
काज सब बिसरे ऐसे
हुए अनुरक्त ॥ (52)
कालिंदी
की कलकल में
वायु
की हर सर सर में ।
वे
छबी देखते रत्ना की
श्री
यमुना के पावन जल में ॥ (53)
रत्ना के आदर्श तुलसी
प्रेम
पूजा दर्श तुलसी ।
तुलसी
जीवन लक्ष्य उस के
हर्ष
और उत्कर्ष तुलसी ॥ (54)
जब
से रत्ना को मिला तुलसी का संसर्ग ।
उस
को अपना सा लगे हर
व्यक्ति हर वर्ग ॥ (55)
जब
से पहना कंठ में रत्ना तुलसी हार ।
रोम
रोम पावन विमल श्वास
श्वास आभार ॥ (56)
रत्नावली
तो हो गई प्रियतम
के अनुरुप ।
पूरक
भी अनुकूल भी तुलसी
का ही रूप ॥ (57)
तुलसी
रत्ना से कहे राम
ही मेरा लक्ष्य ।
रत्ना
कहती पिय से तुम
जीवन उद्देश्य ॥ (58)
रत्ना
तुलसी को भजे तुलसी
भजे श्री राम ।
दोनों
में प्रभु प्रेम की बहे धार अभिराम ॥ (59)
फिर
ऐसी घटना घटी इक दिन
बृद्ध
पाठक कुछ अस्वस्थ हुए ।
रत्ना
को मिलने को व्याकुल
कुछ
चिंतित और कुछ त्रस्त हुए ॥ (60)
जब
मिला संदेशा रत्ना को
झट
यमुना के उस पार गई ।
पिता
दर्शन और सेवा पा कर
संतुष्ट
धन्य और तृप्त हुई ॥ (61)
तुलसी
लौटे पर रत्ना की
न
दिखी भव्य अनुपम मूरत ।
न
दिखा दिव्य आलोक कहीं
न
दिखी अलौकिक वह सूरत (62)
घर में वो प्रेम की छांव कहाँ
वो
नेह का अनुपम धाम कहाँ ।
विरही
मन चिंतित औऱ व्याकुल
अब
चैन कहाँ आराम कहाँ ॥ (63)
बिन
प्रियतम के अब कैसे रहूं
किस
से मैं मन की बात कहूँ ।
अब
कौन बंधाये धीर मुझे
कैसे
यह विरह की पीर सहूँ ॥ (64)
जब
पता चला रत्नावली गई पिता के पास ।
तुलसी
को ऐसे लगा ज्यूँ
दिन में हो गई रात ॥ (65)
सुना
है रत्ना चली गई यमुना के उस पार ।
फिर
भी तुलसी खोज रहे गली गली हर द्वार ॥ (66)
संभव
है वो दीख पड़े किसी गली या किसी घाट पर ।
यमुना
के उस ओर को जाते किसी भी पथ पर किसी बाट पर ॥ (67)
बस्ती
के हर चौराहे में यमुना के हर घाट घाट में ।
प्रीत
को खोजे आतुर प्रेमी गली गली हर बाट बाट में ॥ (68)
अस्ताचल
को जाता दिनकर
गुपचुप
पूछे कहाँ है प्रियवर ।
यमुना
का हर घाट भी पूछे
कहाँ
छुपी है कविता कविवर ॥ (69)
गुमसुम
गुमसुम संध्या बीती आई काली रात ।
बादल
छाए आसमान में आंधी
और बरसात ॥ (70)
झमझम
ऐसा बरसा पानी बरसी
मूसलधार ।
यमुना
के इस और भी पानी जलथल है उस पार ॥ (71)
बाहर
जल का उग्र रूप है
भीतर
अग्नि शोर मचाये ।
बाहर
यम का पहरा देखो
भीतर
कामिनी पास बुलाये ॥ (72)
यमुना
के उत्पाती जल ने दिये किनारे तोड़ ।
पिया
मिलन की प्रेमी मन में लगी है फिर भी होड़ ॥ (73)
पाप
है क्या, क्या पुण्य हुआ
मन
मस्तिष्क फिर शून्य हुआ ।
पाना
ही है रत्न अमोलक
सोचा, कूदा
धन्य हुआ ॥ (74)
रत्ना
हेतु कालिंदी में कूदे तुलसीदास ।
रत्ना
जपते रत्ना गाते लहर लहर हर श्वास ॥ (75)
गतिमान
अनिरुद्ध हो रहा
लहर
लहर अवरुद्ध हो रहा ।
रत्ना
हेतु रवितन्या से
श्वास
श्वास इक युद्ध हो रहा ॥ (76)
मरते
जीते, जीते मरते हुए जो यमुना
पार ।
तुलसीदास
को ऐसा लगा ज्यूँ
जीत लिया संसार ॥ (77)
उन्मादी
आतुरता जीती मर्यादा
पर हार गई ।
निश्चय
जीता, लग्न भी जीती रीति लज्जा हार
गई ॥
(78)
अभी तो यमुना पार हुई है किन्तु मंज़िल
दूर है ।
रात
की कालिख सोख ले पल में कहाँ छुपा वो नूर है ॥ (79)
एक
ही इच्छा एक कामना पिया मिलन की आस ।
चिर
परिचित पगडंडी पर फिर दौड़े तुलसीदास ॥ (80)
नीति
सम्मत वेश नहीं है
तन
की सुध बुध शेष नहीं है ।
पिया
दरश की चाह है मन में
जग
की परवाह लेश नहीं है ॥ (81)
भटकता
कोई पुजारी जैसे
मंदिर पा गया ।
वैसे
ही तुलसी समक्ष पाठक
निकेतन आ गया ॥ (82)
दीवार
को फिर फांद कर वो
प्रेम के आवेश में ।
दूसरी
मंज़िल पे पहुंचा इक अनोखे वेग में ॥ (83)
फांद
कर खिड़की वो झट से अन्तःपुर में आ गया ।
सामने
रत्नावली का प्रेम दर्शन पा गया ॥ (84)
जिस
के कारण युद्ध जीता सामने वो प्रियतमा है ।
तुलसी
की रत्नावली है प्रेम
अर्चन कामना है ॥ (85)
सामने
मंज़िल खड़ी है फिर
भी क्यों भ्रमजाल है ।
क्या
हुआ है, क्यों यह दुविधा भ्रमित सा
अंतराल है ॥ (86)
दिल
की धड़कन रुक गई है गुम है श्वासों की भी सरगम ।
क्षुब्ध
सी रत्नावली है मूक
दर्शक से हैं प्रियतम ॥ (87)
देखी
तुलसी की दशा रत्ना
हुई क्षुब्ध ।
अंतस
के गहरे तल में जागा
सोया बुध ॥ (88)
मिट्टी
की इस देह से क्योंकर
प्रीति नाथ ।
जड़
में भी तो चेतन बन बैठे हैं रघुनाथ ॥ (89)
त्यागी
लज्जा, रीति, नीति नश्वर
देह से ऐसी प्रीति ।
नेह
जो होता राम से तो
मिट जाती भव भीति ॥ (90)
खिची
हुई मर्यादा रेखा
वृष्टि
झंझावात न देखा ।
रीति
अनीति कुल मर्यादा
समय
असमय का करते लेखा ॥ (91)
रत्ना
कुछ भी समझ न पाए
शब्द
हैं अपने या हैं पराये ।
मैं
बोलूं या कोई शक्ति
मुझ
से सारी बात बुलाये ॥ (92)
रत्ना
की आंखों में झलके गुरुवर नरहरिदास ।
डूबे
दुख और ग्लानि में स्तब्ध से तुलसीदास ॥ (93)
दिशा
दिशा में गूंजते रत्ना के सब वाक ।
तुलसी
को धिक्कारते धरती और आकाश ॥ (94)
कामी
और निर्लज्ज घना हूँ
स्वयं
वे ही मैं भार बना हूँ ।
अपने
ही उत्थान के पथ पर
अवरोधक
बन स्वयं तना हूँ ॥ (95)
यह
जीना भी क्या जीना है
इस
से तो मरना अच्छा है ।
निर्लज्जता
के बोझ से बेहतर
धरती
में गढ़ना अच्छा है ॥ (96)
सुख
दुख के
इस झूले में
बोलो
कब तक झूलोगे ।
आशा
और निराशा में
कब
तक यूं ही डोलोगे ॥ (97)
भूले
संयम लज्जा करुणा
याद
रहे न राम तुम्हे ।
काम
को तुम क्या भोगोगे
भोग
गया है काम तुम्हे ॥ (98)
लाज
बची कुछ शेष अगर है
मर्यादा
कुछ लेश अगर है ।
गुरु
रत्ना के शब्द न भूलो
श्रद्धा
का उन्मेष अगर है ॥ (99)
जाने
क्या प्रारब्ध हुए
तुलसी
स्तंभित स्तब्ध हुए ।
ग्लानि
शौक और चिन्ता को
पल
में वो उपलब्ध हुए ॥ (100)
क्या
क्या नहीं दिखाया मुझ को
अब
तक बहुत नचाया मुझ को ।
अब
तो शरण में ले लो राम
अब तक बहुत बनाया मुझ को ॥ (101)
इस
घटना ने दे दिया नूतन इक अभियान ।
अनजाने
अनचीन्हे पथ पर तुलसी किया प्रयाण ॥ (102)
घायल
तन है आहत मन है
किन्तु
भीतर एक ही प्रण है ।
सब
कुछ मेरा राम को अर्पित
राम
ही मेरा जीवन धन है ॥ (103)
एक
लक्ष्य और एक कामना
एक
ही हठ और एक प्रार्थना ।
शरणागत
अब शरण में ले लो
पल
पल क्षण क्षण यही याचना ॥ (104)
धरती
ऊपर गगन मंडल में
बीहड़
वन में गहरे जल में ।
आर्तनाद
गूंजे तुलसी का
हर
पर्वत में हर समतल में ॥ (105)
मुझ
सा अधम न तुम सा पावन
मैं
भुजंग हूँ, तुम हो चंदन ।
तुम
से लिपट रहा रघुराई
कलुष
हरो अब कर दो निर्मल ॥ (106)
क्षत
विक्षत सा घायल तन है
कंटक
दुर्गम बीहड़ वन है ।
निर्जन
पथ पर भक्त राम का
भाव
विव्हल सा इक क्रंदन है ॥ (107)
आनंद
सिंधु प्यारे राम
तुम
ने दुष्ट भी तारे राम ।
तुलसी
को भी पार लगा दो
वो
भो तेरे सहारे राम ॥ (108)
इधर
पुकारे राम को तुलसी मन अभिराम ।
और
उधर रत्ना जपे तुलसी का ही नाम ॥ (109)
तुलसी
सोचें क्यों भला मैं बिसराये राम ।
रत्ना
सोचे कटु वचन क्यों कहलाये राम ॥ (110)
रत्ना
तुलसी की गुरु तुलसी उस के राम ।
रत्ना
तुलसी को भजे तुलसी भजे श्री राम ॥ (111)
यमुना
के संग बढ़ रहे तुलसी
जपते राम ।
और
उधर रत्नावली पथ निहारे सुब-शाम ॥ (112)
तुलसी
को अब रात दिन राम
मिलन की चाह ।
और
रत्न आठों पहर देखे
प्रियतम राह ॥ (113)
रत्ना
तुलसी को भजे तुलसी
भजे श्री राम ।
इक
दूजे का शुभ सदा चाहें वो अभिराम (114)
राम
नाम की वेणु बजाते
राम
ही रटते, राम ही गाते ।
पहुंचे
तीरथ राज कवि
पल
पल नैनन नीर बहाते ॥ (115)
प्रयागराज
की धरती पर पहुंचे
तुलसीदास ।
पावन
धूरि शीश धरि गदगद
पुलकित गात ॥ (116)
स्मरण
हुई फिर राम कथा गुरुवर का संवाद ।
संगम
तट पर बरबस ही आये
रघुवर याद ॥ (117)
त्रिवेणी
के नीर से किया
स्नान कविराय ।
मन
में उपजा अतुल सुख हनुमंत हुए सहाय ॥ (118)
राम
स्नेही को सदा राम
दूत का संग ।
तन
पुलकित गदगद सदा मन में पुलक उमंग ॥ (119)
गंगा
यमुना सरस्वती दीने
शुभ आशीष ।
द्रवित
तुलसी पर हुए कृपा
सिंधु जगदीश ॥ (120)
तीरथराज
ने हर लिए तुलसी
के सब द्वंद्व ।
रोम
रोम पावन विमल मन
अनुपम आनंद ॥ (121)
संगम
तट पर करते मंथन
पल
पल सुमिरण हर पल वंदन ।
रत्ना
की भी पीर हरो प्रभु
श्वास
श्वास तुलसी का अर्चन ॥ (122)
हर
ली मेरी शंका उलझन
निर्मल
है अब मन का दर्पण ।
रत्ना
को भी राह दिखा दो
रामदूत
हे, हे रघुनंदन ॥ (123)
बहती
हवा ने दे दिया पिया
संदेशा जाय ।
रत्ना
कोकिल कूक कर पिया
पिया धुन गाए ॥ (124)
दग्ध
धरा का ताप यूँ हर
ले कोई फुहार ।
रत्ना
का संताप भी हरे
प्रेम रस धार ॥ (125)
रत्ना
को ऐसे लगा पिय
है मेरे पास ।
श्वास
श्वास में बांधते परम मिलन की आस ॥ (126)
हर
जन की विपदा हरो विनति सुनो महाराज ।
मारूतिसुत
से प्रार्थना लागे
करन कविराज ॥ (127)
हे
धरती के सुल्तान सुनो
हे
नांदी के हनुमान सुनो ।
हर
मन में राम की गूंज भरो
हे
तुलसी के भगवान सुनो ॥ (128)
जाना
अनजाना पाप हरो
हर
जन का तुम संताप हरो ।
हम
आये तेरी शरनाई
हर
बाधा हर इक श्राप हरो ॥ (129)
सकल
लोक हित अर्चना करते
दिन और रात ।
निर्मल
कर दो हर अंतस हे
रामदूत हे तात ॥ (130)
तुम
बिन अपना कोई और नहीं
बिन
तेरे की भी ठौर नहीं ।
हर
मन का तमस हरो देवा
तेरी
लौ बिन होती भोर नहीं ॥ (131)
हे
अंजनीसुत केसरीनंदन
काटो
सब के ही भव बंधन ।
अनुराग
राम का मन उपजे
अनुकंपा
कर दो शिवनंदन ॥ (132)
हनुमान
की वंदना करते
अति अनुराग ।
मारुति
की प्रेमनिधि पायें
तुलसीदास ॥ (133)
हैं
धरती और आकाश तेरे और राम रसायन पास तेरे ।
पथ
राम दर्श का दिखलाओ हे बजरंगी हम दास तेरे ॥ (134)
रघुनंदन
के तुम हो प्यारे
रामद्वार
के तुम रखबारे ।
आशीष
हमें भी दो स्वामी
हम
भीख मांगते बंजारे ॥ (135)
पा कर दिव्य संकेत तब सुमिरि उमा महेश
।
तुलसीदास
संगम तट पर धारा
साधु वेश ॥ (136)
अब
चलो चलें शिवांगन में
उस
दिव्य धरा मुक्तांगन में ।
काशी
नगरी का स्फुरण हुआ
रोमांच
हुआ तुलसी मन में ॥ (137)
तीरथ
राज प्रयाग से तुलसी
किया प्रयाण ।
रामभक्त
के संग चले रामदूत
हनुमान ॥ (138)
लोक धर्म का मर्म बताते
सब
को सांझी राह दिखाते ।
शिवनगरी
को चलें हैं तुलसी
शिव
की अनुपम महिमा गाते ॥ (139)
हे
नीलकंठ हे गंगाधर
हे
त्रिपुरारी हे शिवशंकर ।
देवों
के देव, हे महादेव
प्रणम्य
तुम्ही हो करुणाकर ॥ (140)
तुम
राम के शिव, शिवराम तुम्ही
दुखभंजन
तुम, सुखधाम तुम्ही ।
तुम
रामचरित मानस राखा
सर्वोत्तम
रचनाकार तुम्ही ॥ (141)
महादेव
को शीश निवाते
काशी
का गुणगान सुनाते ।
मुक्ति
की धरती पर पहुंचे।
तुलसीदास
अनुपम सुख पाते ॥ (142)
यह
नगरी उमापति की है
यह
धरती प्रेम पति की है ।
इस
धरा में है अमरत्व छुपा
यह
भूमि परम गति की है ॥ (143)
हर
घाट घाट आभास तेरा
काशी
नगरी में बास तेरा ।
है
स्पर्श तेरा गंगाजल में
है
जन जन में विश्वास तेरा ॥ (144)
सुमिरे
शिव और याज्ञवल्क्य कागभुशुण्डि हनुमान ।
मानसरोवर
घाट पर तुलसी
लागा ध्यान ॥ (145)
मानस
के गहरे तल में उपजा
अति अनुराग ।
तन
पुलकित मन प्रेमवश कागभुशुण्डि साकार ॥ (146)
रामभक्त
खग को किया तुलसी
ने प्रणाम ।
भक्तशिरोमणि
से मिला रामभक्ति
वरदान ॥
(147)
बार
बार यह प्रार्थना करता हूँ हे नाथ ।
सदा
प्रिय मुझ को लगें दीनबंधु रघुनाथ ॥ (148)
तुझ
से ही आशीष पा गरुड़
हुए निःशंक ।
मुझ
को भी दो प्रेमनिधि रामभक्त श्रीसंत ॥ (149)
राम
नेह बरसे सदा कृपा
करें जगदीश ।
कागभुशुण्डि
ने दिया तुलसी
को आशीष ॥ (150)
शिव
की जटा से उतरी धारा
करती
तुलसी मानस सींचित ।
राम
प्रीति हृदय में उतरी
कलिकलुष
कोई शेष न किंचित ॥ (151)
जैसे
गंगा ताप हरे सब
विपदा
व्याधि पाप हरे सब ।
तुलसी
के अंतस में उपजी
राम
कथा संताप हरे सब ॥ (152)
रामकथा
की गंगधार से तुलसी करें निहाल ।
काशी
के हर जन ने पहनी सियाराम जयमाल ॥ (153)
इत
रत्ना उन को याद करे
उत
शिव से वो संवाद करें ।
हर
जन के दुख हरने के लिए
तुलसी
शिव से फरियाद करें ॥ (154)
हे
महादेव हे शिवशंकर
तम
हरो जगत का हे दुखहर ॥
चिंता
व्याधि का कलुष हरो
हृदय
का अमृत कलश भरो ।
रत्ना
को अपनी शरण में लो।
हे
अनुकंपा के रत्नाकर ॥
हे महादेव...…..................
काशी
नगरी में बास तेरा
हर
हृदय में है आवास तेरा ।
आभास
तेरा हो जन जन को
आशीष
सभी की दो आ कर ॥
हे
महादेव...…....................
प्रभु
भक्ति पथ प्रशस्त करो
इस
दास पे अपना हस्त धरो ।
अब
हो प्रसन्न हे आशुतोष
हे
नीलकंठ हे करुणाकर ॥
हे
महादेव हे शिवशंकर
तम
हरो जगत का हे दुखहर ॥ (155)
हे
शशिशेखर हे चंद्रभाल
अब
द्रवित हों शंकर दीनदयाल ॥
तेरी
दया का पल पल रस बरसे
अनुराग
राम का उर उपजे ।
गले
में शोभे सियराम माल ॥
संत
चरण धूलि से पगा रहे
मन
राम चरित में लगा रहे ।
हों
साथ सदा हनुमंत लाल ॥
हे
शशिशेखर..….…..................
तुम
तात मैं बालक हूँ दाता
तेरी
कृपा का याचक हूँ दाता ।
अनुकंपा
कर दो महाकाल ॥
हे
शशिशेखर..….….................. (156)
तुलसी
शिव आराधना पहुंची
रत्ना पास ।
अंतस
के गहरे तल में फैला
निर्मल उजास ॥ (157)
सियाराम
मय सारा जग जानो
जन
जन में उस को पहचानो ।
जन
सेवा ही राम की सेवा
तुलसी
कहे रत्ना यह मानो ॥ (158)
पिया
पास बहुत कुछ ऐसा लगा
जन
सेवा का संकल्प जगा ।
सियाराम
रूप है जग सारा
कोई
ग़ैर नहीं हर एक सगा ॥ (159)
तुलसी
आज्ञा शीश पे धरती
रोगी
बृद्ध की सेवा करती ।
सब का
सदा ही वो शुभ चाहे
हर
पीड़ित की पीड़ा हरती ॥ (160)
जन
सेवा अभियान में रत्ना हुईं प्रशस्त ।
ग्लानि
शोक और सारे ही भ्रम होने लगे फिर पस्त ॥ (161)
तुलसी
शुभ आशीष से रत्ना
हो गईं शांत ।
हर
पल उस के पास अब रहने लगे हैं कांत ॥ (162)
तुलसी
मन में एक ही इच्छा
एक
ही चाहत एक लग्न है ।
दर्शन
रघुनाथ के पाऊं
पल
पल क्षण क्षण एक ही धुन है ॥ (163)
सुख
दुख को सम जान सहूंगी जैसे रखें बैसे रहूंगी ।
तुलसी
हार कंठ में शोभे रत्ना सब से जा के कहूंगी ॥ (164)
तुलसी
मन रघुनाथ के दर्शन
की है चाह ।
रत्ना
मन पिय से जुड़ा नाचे
बेपरबाह ॥ (165)
जन
सेवा अभियान में रत्ना हुईं प्रशस्त ।
ग्लानि
शोक और सारे ही भ्रम होने लगे फिर पस्त ॥ (166)
तुलसी
शुभ आशीष से रत्ना
हो गईं शांत ।
हर
पल उस के पास अब रहने लगे हैं कांत ॥ (167)
जिसे
अपनी शरण में लें दाता
उसे
कोई भय न शंका हो ।
उसे
तमस भी देता नव प्रकाश
जिस
पर प्रभु की अनुकंपा हो ॥ (168)
जगबंदित
तुलसी से प्रसन्न
सब
जड़ चेतन भव भूत सभी ।
इक
प्रेत ने शुभ आशीष दिया
हनुमंत
के दर्शन होंगे अभी ॥ (169)
फिर
संकटमोचन ने दिए तुलसीदास को दर्श ।
कविराज
को दे दिया नवचेतनमय
उत्कर्ष ॥ (170)
तुलसीदास
पर हुए प्रसन्न
मारुतिनंदन
संकटमोचन ।
दिव्य
आभा से फिर चमक उठे
कविराज
के नव पंकज लोचन ॥ (171)
हनुमंत
कहें तुम धन्य हुए
तुम
पर प्रसन्न रघुनन्दन हैं ।
है
जन्म सफल तुलसी तेरा
तूने
पाया दिव्य स्पंदन है ॥ (172)
तुम
चित्रकूट को गमन करो
वहां
दर्श देँगे तुम्हे रघुराई ।
गदगद
तुलसी फिर करने लगे
मारुति
नंदन की बड़ियाई ॥ (173)
तुलसीदास
गुरुदेव को किया
बारम्बार प्रणाम ।
तेरी
कृपा से हे गुरुवर दिये आज दर्श हनुमान ॥ (174)
राम
कृपा का मर्म तब समझा नहीं था नाथ ।
राम
नाम की महिमा का अब दिखा प्रत्क्षय प्रमाण ॥ (175)
बार
बार तेरी वंदना करता
हूँ महाराज ।
तेरी
कृपा का प्रत्यक्ष फल देखा मैने आज ॥ (176)
शिव नगरी से तुलसी ने किया चित्रकूट
प्रयाण ।
कहते
सुनते राम कथा गाते
राम गुण गान ॥ (177)
जहां
सब ने देखी राम छटा
जहां
भरत का सब संताप मिटा ।
उस
धरती का वंदन सदा
जहां
राम भरत का मिलन घटा ॥ (178)
अत्री
अनसुईया बास जहां
ऋषि
वाल्मीकि आभास जहां ।
बह चित्रकूट प्रणम्य सदा
सिया
राम हरें सब त्रास जहाँ ॥ (179)
धन्य
धन्य कामदगिरि आ के बसे जहां राम ।
धन्य
चित्रकूट धाम जहां श्री राम किये विश्राम ॥ (180)
धन्य
जहां के पशु पक्षी धन्य सभी नर नारी ।
धन्य
मंदाकिनी की धारा धन्य धन्य धरा यह सारी ॥ (181)
चित्रकूट
प्रवेश पर तुलसी
मन आनंद ।
राम
घाट पर आते ही पाया
परमानंद ॥ (182)
कामदगिरि
परिक्रमा करते तुलसीदास ।
पल
पल चिंतन राम का श्वास श्वास आभास ॥ (183)
जड़
चेतन में देखते छिपा
राम अनुराग ।
धन्य
धन्य कविराज तुम धन्य तुम्हारे भाग ॥ (184)
लीलाभूमि
श्री राम की करे
प्रेम संचार ।
सजल
नयन कविराज के करें
प्रकट आभार ॥ (185)
कामदगिरि
प्रदक्षिणा करते
तुलसीदास ।
देख
मनोहर दृश्य एक मुग्ध
हुए कविराज ॥ (186)
देखे
राजकुंवर अति उत्तम
घुड़सवार
मनमोहक अनुपम ।
धनुषबाण
हाथों में शोभे
उज्ज्वल
तमहर जैसे दिनकर ॥ (187)
मुग्ध
हुए छवि देख कर मन
में परम उल्लास ।
अंतस
का सब तिमिर हटा उतरा परम उजास ॥ (188)
मूंद
नयन वहीं बैठ गए भूले तुलसी अपान ।
अंतस
के गहरे तल में प्रकट
हुए हनुमान ॥ (189)
देख
कर जिन की छबि मुग्ध
हुए हो तात ।
राजवेश
में लखन सहित वो
ही थे रघुनाथ ॥ (190)
चूक
गए तुम तुलसी पहचाने
नहीं नाथ ।
धीर
धरो कल प्रातः फिर दर्श देंगे रघुनाथ ॥ (191)
प्रातः
राम घाट पर तुलसी
करते
राम नाम आराधन ।
हर
मस्तक पर तिलक लगाते
प्रेम
भाव से घिस कर चंदन ॥ (192)
तेज
पुंज बन राम लखन तब
प्रकट
हुए देने को दर्शन ।
नयन
मूंदे देखा तुलसी को
विनय
भाव से घिसते चंदन ॥ (193)
घिस
कर चंदन चिन्ह बना दो
बाबा
हम को तिलक लगा दो
हम
भी कब से पंक्ति में हैं
मस्तक
पर इक छाप जगा दो ॥ (194)
घिस कर तिलक बनाते तुलसी
राम
नाम धुन गाते तुलसी ।
आंख
मूंद कर प्रेम भाव से
मस्तक
तिलक सजाते तुलसी ॥ (195)
चूक
जाएंगे तुलसी जो
सोचा हनुमंत ।
शुक
रूप में प्रकट हुए गाने
लगे भगवंत ॥ (196)
चित्रकूट
के घाट पर भई
संतन की भीर ।
तुलसीदास
चंदन घिसें तिलक
देत रघुवीर ॥ (197)
आंखें
खोली जब तुलसी ने
देखे
दिव्य मनोहर राम ।
रहे
देखते मंत्रमुग्ध से
करुणामूरत
आनंदधाम ॥ (198)
तिमिर
हटा जन्मों का सारा
अंतस
में फैला उजियारा ।
शब्द
जिसे कभी कह नहीं सकते
बहने
लगी ऐसी रसधारा ॥ (199)
कण
कण में जो बस रहा वह आज है मूर्तिमान ।
अपने
भक्त को देखता उस
का ही भगवान ॥ (200)
मुग्ध
हुए छबि देख कर
चंदन
तिलक लगाना भूले ।
तन
मन की सुधि भूले तुलसी
चरणन
शीश निभाना भूले ॥ (201)
अपने
हाथ से स्वयं राघव ने
मस्तक
पे चंदन को सजाया ।
अंतर्ध्यान
होने से पहले
तुलसी
को भी तिलक लगाया ॥ (202)
धन्य
धन्य कविराज तुम धन्य तुम्हारे भाग ।
माथे
तिलक लगाते तुम को राघव अति अनुराग ॥ (203)
चित्रकूट
के कण कण में बहा
राम अनुराग ।
जिस
ने जितना जान लिया उस के उतने भाग ॥ (204)
रत्ना
को ऐसा लगा वो
है शांत स्वरूप ।
आनंदमय
दुविधा रहित प्रियतम
का ही रूप ॥ (205)
कोई
कहे वो रंक है कोई
कहे वो भूप ।
रत्ना
दोनों से परे तुलसी
के अनुरूप ॥ (206)
तुलसी
के अंतर्मन में फिर
प्रकट हुए हनुमान ।
अवधपुरी
की ओर अब तात
करो प्रयाण ॥ (207)
पा
कर दिव्य संकेत तब चले अयोध्या धाम ।
जन्मभूमि
के दर्शन हित आरम्भ
किया अभियान ॥ (208)
अवधपुरी
के नाथ ने जब
से मुझे बुलाया है ।
तब
से पुलकित तन मन मेरा रोम रोम हरषाया है ॥ (209)
हनुमंत
की आज्ञा पा गमन
किया महाराज ।
राम
नाम की अलख जगाते पहुंचे तीरथराज ॥ (210)
त्रिवेणी
के घाट पर मन
में गूंजा नाम ।
सुख
की सब भटकन मिटी तुलसी भये सुखधाम ॥ (211)
यज्ञवल्यक
के संग संग प्रकट
हुए भारद्वाज ।
तुलसी
के मन में बजे कितने
ही सुरसाज ॥ (212)
राम
नेह बरसे सदा तुम पर तुलसीदास ।
सदा
प्रसन्न तुम पर रहें अवधपुरी के नाथ ॥ (213)
यज्ञवल्यक
भारद्वाज से पाया
शुभ आशीष ।
रोम
रोम में बस रहे तुलसीदास
के ईश ॥
(214)
सूकर
क्षेत्र में सुना जो राम कथा प्रसंग ।
माघ
मेला प्रयाग में वही कथा सत्संग ॥ (215)
कैसा
शुभ संयोग है कैसी
अद्भुत कृपा ।
देश
काल से मुक्त है तुलसी रघुवर कथा ॥ (216)
माघ
मेला प्रयाग में सुना राम गुणगान ।
नमन
कर गुरुदेव को किया
काशी प्रयाण ॥ (217)
जग
मंगल हेतु खोज रहे शिव भावी रचनाकार ।
तुलसी
पहुंचे काशी, शिव संकल्प हुआ
साकार ॥
(218)
तुलसी
के अंतस में उतरी काव्यमयी रसधार ।
निर्झर
देववाणी में झरती पद्य रचना हुई साकार ॥ (219)
अपने
में रचना इतराई
है
कौन जनक कौ है माई ।
है
नमन मेरा कवि को जिस ने
मुझे
शब्दमाल है पहनाई ॥ (220)
जो
दिवस को रचते कविराज वो रात लुप्त हो जाये ।
जो
निराकार साकार हुआ आश्चर्य गुप्त हो जाये ॥ (221)
अगले
दिन भी यही हुआ फिर घटा यह बारम्बार ।
तुलसी
कुछ भी समझ न पायें है क्या इस का आधार ॥ (222)
अष्ट
रात्रि सपने में शिव ने संदेश दिया ।
निज
भाषा में काव्य रचो कवि को आदेश दिया ॥ (223)
नींद
उचट गई तुलसी की वे उठ कर बैठ गए ।
उमा
सहित वहाँ शिवशंकर तत्क्षण ही प्रकट हुए ॥ (224)
है
जन्म सफल तुलसी तेरा तेरा होना धन्य हुआ ।
रामचरित
रचने हेतु ही तेरा
जन्म हुआ ॥ (225)
तुम
जाओ अयोध्या तात अभी
और
जन भाषा में चरित रचो ।
जगबंदित
होगी कृति तेरी
जन
जन में राम का नेह भरो ॥ (226)
रगघुनंदन के चरित की महिमा होगी अपार ।
सामवेद सम होगी तुलसी रचना तुम्हार ॥ (227)
शिव आशीष जो बरसा जी भर
रामकाव्यमय तुलसी अंतस ।
अन्तर्मन में गूँजे रह रह
अजर अमर दो पावन अक्षर ॥ (228)
रामचरितमानस रचने कवि चले अयोध्या धाम ।
सकल लोकहित चल पड़े रामजन्म सुखधाम ॥ (229)
जहां पावन सरयू बहती है जहां जन्मभूमि
सुखधाम है ।
उस मोक्षदायिनी अयोध्या को अब बारंबार
प्रणाम है ॥ (230)
जिस के रक्षक हनुमंत है
जहां भक्ति लीन हरि संत हैं ।
है नमन सदा उस धरती को
जहां तुलसी के भगवंत हैं ॥ (231)
जहां रामराज्य का वरण हुआ
और रामकाव्य संचरण हुआ ।
उस धारा का पूजन और अर्चन
जहां रामायण अवतरण हुआ ॥ (232)
जहां ठुमक चले चारों भाई
और प्रेम मुदित कौशल्या माई ।
उस धूलि को मस्तक पे धारो
जहां धूलि सने थे रघुराई ॥ (233)
माँ कौशल्या की गोद भरी
जहां बालरूप में प्रकट हरि ।
जहां काग ने पाई परमगति
प्रणम्य सदा वो अवधपुरी ॥ (234)
जहां अगणित दीपों की माला
सजी राघव के अभिनंदन में ।
आनंदमयी वह अवधपुरी
हर पल बसती रघुनन्दन में ॥ (235)
त्रेतायुग में रामजन्म के समय थे जो भी योग
।
संबत सौलह सौ इकतीस में बने वही संयोग ॥ (236)
रामनवमी के दिन सुबह पा कर शिव आशीष ।
मानस का अवतरण हुआ सरयु नदी के तीर ॥ (237)
बाल अयोध्या अरण्य और किष्किंधा सुंदर कांड
।
लंका उत्तर कांड से रामायण ब्रह्मांड ॥ (238)
सप्तकांड यह मानस के हैं सप्तसिंधु समान।
हर इक की महिमा अनंत दिव्य राम गुणगान॥ (239)
दो वर्ष महीने सात छब्बीस दिन प्रमाण ।
रामविवाह के दिन हुआ सम्पूर्ण अभियान ॥ (240)
सकल विश्व पर तुलसी ने ऐसा किया उपकार ।
राम नेह का दे दिया दुनिया को आधार ॥ (241)
रामजन्म के दिन हुई राम कथा प्रारम्भ ।
राम विवाह पर हो गया पूरन मानस ग्रंथ ॥ (242)
तुलसी तो लेखनी के द्वारा शिव उमा कथा
प्रसंग कहें ।
और उधर रत्नावली हर घड़ी पिया के संग रहे ॥ (243)
तुलसी की लेखनी के द्वारा इत मानस का अवतरण
हुआ ।
और उधर रत्नावली में दिव्य लेखन का संचरण
हुआ ॥ (244)
रत्ना भी लेखनी के द्वारा कभी अंतकरण के भाव
कहे ।
कभी साधना पथ संकेत रचे कभी नीति सम्मत
वाक्य कहे ॥ (245)
रत्ना पिय आशीष से पाया राम अनुराग ।
तुलसी भव भीती मिटी मन अनुपम विश्राम ॥ (246)
रत्ना तुलसी की गुरु तुलसी उस के राम ।
दोनों प्रेम के रूप हैं दोनों हैं सुखधाम ॥
(247)
रामायण को जानिए प्रकट रूप जगदीश ।
प्रेममय पावन सदा तुलसीदास के ईश ॥ (248)
मन के कलुष मिटती मानस
अंतररोग मिटाती मानस ।
निराकरण कर शंका का
अद्भुत रस बरसाती मानस ॥ (249)
गुरु की माहिमा गाती मानस
समता भाव जागती मानस ।
जीवम की हर इक व्याधि का
निराकरण कर जाती मानस ॥ (250)
चुप्पी में ले जाती मानस
सब को ही अपनाती मानस ।
पेचीदा और कठिन मनुज को
सरल सहज कर जाती मानस ॥ (251)
प्रेम पवन बन आती मानस
जीवन पर्व बनाती मानस ।
मन के गहरे घावों पर भी
मरहम दिव्य लगाती मानस ॥ (252)
तुलसी ने जग को दिया राम नेह आधार ।
सकाल विश्व में हो रही कविराज जयकार ॥ (253)
तुलसी तेरे नाम की पहनी कंठ
जयमाल ।
जय हो तेरी नाथ सदा जय हुलसी के लाल॥ (254)
...................................कपिल अनिरुद्ध
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