Sunday, 24 January 2021

 

       महारास

(महिमा वृन्दावन धाम 1-21)

 

कान्हा ने रास रचाई जहां

यमुना तट बंसी बजाई जहां ।

उस धाम की सारे जय बोलो

बसते हैं नित्य कन्हाई जहां (1)

 

जहां कुंज कुंज में प्रेम भरा

दिव्य लाल, पीत हर श्वेत हरा ।

पशु पक्षी दिव्य हैं पेड़ सभी

प्रणम्य सदा ह वसुंधरा ॥ (2)

 

जहां अणु अणु में प्रेम भरा

हर धूलिकण में दिव्यता ।

वृन्दावन धाम की जय हो सदा

जहां प्रेम भक्ति की भव्यता ॥ (3)

 

जहां धूलि रमे थे कन्हाई

और इतराई यशुदा माई ।

जहां रास रचाते मोहन ने

दिव्य प्रेम सुधा थी बरसाई ॥ (4)

 

जहां कृष्ण प्रेम की स्वर लहरी

थी गूंज उठी यमुना तट पर ।

स्वामी हरिदास की प्रेम सुधा

बरसी थी हर इक तन मन पर ॥ (5)

 

जहां गोधूलि की बेला में

कान्हा की बंसी गूंज उठी ।

उस धरा के भाग्य का क्या कहना

जहाँ नृत्य को सखियाँ झूम उठी ॥ (6)

 

हर सुर में प्रेम हिलोरें थी

हर मन में कृष्ण पुकार भरी ।

हर राग निमंत्रण था देता

हर भाव में नेह की ज्योत धरी ॥ (7)

 

जहां जगत पावनी तुलसी मां

और कलुष मिटाती है यमुना ।

उस धरती की महिमा कैसे कहें

यहां धूलि में रमते हैं कान्हा ॥ (8)

 

वृन्दावन महिमा अनंत अनंत धाम गुणगान ।

महिमा ऊधौ से कहें स्वयं ही श्री भगवान ॥ (9)

              

जहाँ आनंद भी आनन्दित हो

और कण कण जहां स्पंदित हो ।

वह जगत पावनी पुण्य धरा

सदा पूजित हो सदा वंदित हो ॥ (10)

 

जहां प्रेम पीयूष बहे हर पल

मन राधे राधे कहे हर पल ।

उस भू का अर्चन सदा जहां

मन श्याम चरण में रहे हर पल ॥ (11)

 

जिस धूलि को अपने तन पर मल

 ऊधौ ने प्रेम गति पाई ।

उस धरा की महिमा कैसे कहें

जिस धूलि सनी मीराबाई ॥ (12)

 

हां श्वास श्वास में सुमिरण हो

और रोम रोम रसधार बहे ।

है परमधरा वृन्दावन की

जहां कण कण में हैं कृष्ण बसे ॥ (13)

 

जहां राधा माधव रास रचें

जहां प्रेम दर्श की होड़ मचे ।

रसधार जहां बहती है सदा

उस प्रेम धार से कौन बचे ॥ (14)

 

जहां कृष्ण की बंसी बजते ही

यमुना में हिलोरें उठती हैं ।

उस धरा का पूजन वंदन है

जहां नित्य प्रेम की मस्ती है ॥ (15)

 

जहां  ममतामयी यमुना मैय्या

वात्सल्यमयी श्यामल गैय्या ।

और कृष्ण जीवनी तुलसी माँ

सब के पूजित हैं कन्हैया ॥ (16)

 

कलि के कलुष मिटाती यमुना

मन निर्मल कर जाती यमुना ।

कृष्ण प्रेम में कल कल बहती

प्रेम सुधा बरसाती यमुना ॥ (17)

 

जग पावन जगवंदित तुलसी

कृष्णप्रिया आनंदित तुलसी ।

संताप हरे अनुराग भरे है

संतजनों से सेवित तुलसी ॥ (18)

 

कलुषित अंतस शुद्ध है करती

प्रेम सुधा रस हिय में भरती ।

तुलसी कंठहार जो पहने

उस की हर इक बाधा हरती ॥ (19)

 

तुलसी की सेवा करे जो भी अति अनुराग ।

उस का हर संकट कटे जागें सोये भाग ॥ (20)

 

तुलसी के संसर्ग से भागें मानस रोग ।

पल पल उस की ही छटा पल पल उस से योग ॥ (21)

 

(रासलीला का आरंभ 22-80 )

 

शरद ऋतु का पूर्ण चंदा श्याम नभ पर छा गया ।

श्याम सुंदर मुस्कुराता बांसुरी ले आ गया ॥ (22)

 

बांसुरी में प्राण फूंके जैसे ही घनश्याम ने ।

हाथ जोड़े यमुना जी ने प्रेम में सम्मान में ॥ (23)

 

तुलसी बन ने यमुना जल ने और शीतल चाँदनी ने ।

सुरभित पवन ने बंसीवट ने हाथ जोड़े यामिनी ने ॥ (24)

 

बांसुरी की तान गूंजी इस धरा में और गगन में ।

यमुना जी के शांत जल में और पावन वृन्दावन में ॥ (25)

 

बांसुरी की तान कहती महारास उत्सव आ गया ।

हर दिशा में श्याम का वो प्रेम पावन छा गया ॥ (26)

 

शरद ऋतु का चंद्रमा भी भाग्य पर इतरा गया ।

श्याम की हर तान में वो प्रेम दर्शन पा गया ॥ (27)

 

फिर कृष्ण की बंसी सुनते ही

 यमुना में प्रेम हिलोर उठी ।

फिट मचल मचल और उछल उछाल

वह सीमाओं को लांघ चली ॥ (28)

 

यमुना जल में मच गयी श्याम दर्श की होड़

लहर लहर आगे बढ़ी सरपट लागी दौड़ ॥ (29)

 

गोपियों ने जब सुनी वो

बांसुरी की तान अनुपम ।

बंसी वट से साँवरे का

मिल गया सब को निमंत्रण ॥ (30)

 

सुध बुध खोई सखियों ने भूली सगरे काज ।

छूट गए नित्य कर्म सब छूटी लोकन लाज ॥ (31)

 

सब के प्रियतम श्याम ने बंसी भरी पुकार ।

लोकलाज की केंचुली सखिन दीनी उतार ॥ (32)

 

छूटा दुग्धपान बालक का

 गैय्या का दोहन भी छूटा ।

बिसरी सेवा भोजन बिसरा

मोह छुटा मोहन न छूटा ॥ (33)

 

छाती चिपका बालक भूला

ओढ़ा हुआ आँचल भी छूटा ।

लांघी मर्यादा की रेखा

भाई पिता पति पालक भूला ॥ (34)

 

इत्त गूंजे श्याम की बाँसुरिया

उत्त सरपट दौड़ें सब सखियाँ ।

बंसी की तान को सुनते ही

सब हो गई मानों बांवरियाँ ॥ (35)

 

सरपट भागी गोपियाँ ले पिया मिलन की आस ।

आज मनोहर साँवरा अवश्य रचेगा रास ॥ (36)

 

कोई नीति सम्मत बेश नहीं

सुध पहनावे की लेश नहीं ।

सब उमड़ पड़ी हरि दर्शन को

जग की परवाह भी शेष नहीं ॥ (37)

 

जो जैसी थी वो बैसे ही सुन मधुर प्रेम गुंजान ।

सब निकल पड़ी हरि दर्शन को सुन बंसी धुन आह्वान ॥ (38)

 

यमुना तट से साँवरा करे प्रेम संचार ।

बंसीवट पहुंची गोपियाँ करें प्रकट आभार ॥ (39)

 

देख के गोपिन को वहाँ हरषाये सुखधाम ।

प्रियवर का स्वागत करें मुरलीधर घनश्याम ॥ (40)

 

सौभाग्यवती प्यारी सखियो

किस हेतु तुम आई हो कहो ।

वृन्दावन में सब ठीक तो है

किस कारण पहुंची कुछ कहो अहो ॥ (41)

 

किसलिए तुम्हारा आना हुआ

कोई आज्ञा कोई संदेश तो दो ।

कुछ काम तुम्हारे आ मैं सकूँ

तुम कह दो कुछ आदेश तो दो ॥ (42)

 

अर्द्ध रात्रि बीहड़ वन में

भय नहीं व्यापा क्या मन में ।

सब को तज कर किस कारण तुम

बतलाओ आई मधुवन में ॥ (43)

 

बंशी वट की पावन रज पर

पिता पति की आज्ञा तज कर ।

मर्यादा की लांघ के रेखा

किस हेतु आई सज धज कर ॥ (44)

 

आश्चर्य चकित हो सुनती सब

औपचारिक बातें मोहन की ।

मुस्काती हैं सब सुन सुन कर

सांसारिक बातें मोहन की ॥ (45)

 

नीति अनीति कुछ नहीं देखा

समय असमय का करती लेखा ।

घर बापिस तुम लौट चलो अब

लांघी क्योंकर नियम की रेखा ॥ (46)

 

करुणा सेवा धर्म भी भूली

अपने सारे कर्म भी भूली ।

सब के हित में आप का हित है

मेरे कहे का मर्म भी भूली ॥ (47)

 

मात पिता भाई सुत बांधव

व्याकुल होंगे पति व प्रियवर ।

रोते नन्हें शिशु की खातिर

लौट चलो सब ही अपने घर ॥ (48)

 

नीति अनीति से घबरा कर

कड़वे बोलों से उकता कर ।

सब वन की शोभा देखती

कुछ मंद मंद सी मुस्काकर ॥ (49)

 

चांदनी में था नहाया वन सकल यमुना का जल भी

फूलों के गुंचों से हो कर बहती थी सुरभित पवन भी ।

पेड़ के पत्तों में सरसर और कलकल यमुना जल में

इक अलौकिक ही छटा में उस समय था वंशीवट भी ॥ (50)

 

श्याम बोले देख ली गवृन्दावन की दिव्य शोभा ।

अपने घर की राह पकड़ो हो गया मनोरथ जो पूरा ॥ (51)

 

अनुपम अद्भुत दृश्य यह आ कर

देख लिया वंसीवट सुंदर ।

चिंतित होंगे सब घर वाले

लौट चलो अब सारे मिल कर ॥ (52)

 

यह कटु वचन किस हेतु से

क्यों ऐसी बातें करते हो ।

यह तन मन तुझ पर बार दिया

क्यों इतने निष्ठुर बनते हो ॥ (53)

 

तुम सब को ही अपनाते हो

और सब के मीत कहाते हो ।

फिर हम से इतना बैर है क्यों

हम को क्यों दूर भगाते हो ॥ (54)

 

घर बात छोड़ तेरी शरण पड़ी

तेरा नाम रटें हम घड़ी घड़ी ।

तेरी बांकी सूरत मनमोहन

इस मन में कब से आ अड़ी ॥ (55)

 

चैतन्य तुम्ही तुम पुरषोत्तम

तुम अनुपम अद्भुत सर्वोत्तम ।

यह तन मन तुझ को अर्पित है

फिर भी तुम इतने क्यों निर्मम ॥ (56)

 

क्यों प्रेम की राह दिखाई थी

क्यों हम में प्रीत जगाई थी ।

अब कहते हो घर लौट चलो

पहले क्यों बंसी बजाई थी ॥ (57)

 

बंसी की तान से तुम ने ही

जब किया हमारा सम्मोहन ।

फिर क्रूर बने तुम क्यों इतने

क्यों अपनाते नहीं हो मोहन ॥ (58)

 

हम प्रेमातुर तुम प्रेम में रत्त

तुम शरण्य प्रभु हम शरणागत ।

इन चरण कमल का हे दाता

हम को भी दे दो चरणामृत ॥ (59)

 

परिवार तुम्ही को अर्पित है

घर बार तुम्ही से रक्षित है ।

तेरे कारण पिता पति बंधु

सुत सुता मात सब सेवित हैं ॥ (60)

 

तुम मुक्त सदा स्वछंद तुम्ही

हो पूरण सच्चिदानंद तुम्ही ।

तेरी दया का हम भी इक अक्षर

और प्रेम का अद्भुत छंद तुम्ही ॥ (61)

 

मन को चुरा कर प्रीत जगा कर

कहते हो घर बापिस जाएं ।

यह भी तो बतला दो मोहन

मन को हम कैसे समझाएं ॥ (62)

 

मन के बिना कुछ काम न होगा

सेवा करुणा भाव न होगा ।

घर तो बापिस लौट भी जाएं

इस से तनिक भी लाभ न होगा ॥ (63)

 

बांकी सूरत तेरी हम को मार गई है कान्हा रे ।

तेरी मूरत के आगे हम हार गई हैं कान्हा रे ॥ (64)

 

दिव्य नई पहचान मांगती

अधर सुधा रसपान मांगती ।

हम को अपना लो अब आकर

एक यही वरदान मांगती ॥ (65)

 

अंग से अंग मिला कर मोहन

अंतरघट की प्यास बुझा दो ।

दिव्य स्पंदन दे कर हम को

महारास रस पान करा दो ॥ (66)

 

महारास का मंच सजा दो

आज नया इतिहास बना दो ।

अपनी दिव्य छुअन से मोहन

हम को स्वयं से आज मिला दो ॥ (67)

 

हम को बना कर बांसुरी  छेडो प्रेम सुर तान  

करें व्यक्त आभार तेरा गाएं तेरे गुणगान। ॥ (68)

 

सुन कर करुण व्यथा फिर पल में पिघले यशुदालाल ।

स्वीकार किया सब गोपिन को माधव मदन गोपाल ॥ (69)

 

 हर्षित हो कर केशव ने फिर सब को नेह दुलार दिया ।

प्रेम रंग से मोहन ने फिर सब का ही श्रृंगार किया ॥ (70)

 

हर अंग अंग में श्याम रंग

हर रंग में गोपिन की उमंग ।

आंनद सरोवर में उठती

बस प्रेम रंग की ही तरंग ॥ (71)

 

कभी स्वयं में ही इतराता वो

कभी गोपिन के संग गाता वो ।

गोपी गोपी संग विचर रहा

वैभव अपना दिखलाता वो ॥ (72)

 

मुस्काते हुए हराषाते हुए

और गीत प्रेम का गाते हुए ।

यमुना के तट पहुंच गए

मुरलीधर प्रेम बहाते हुए ॥ (73)

 

दुखहर सुखकर सुखधाम सदा

जो शान्तरूप अभिराम सदा ।

हर कामना पूरण कर रहा

जो काम रहित निष्काम सदा ॥ (74)

 

हर अंग के संग तरंग नई

हर शीश पे उतरी गंग नई ।

सब घूम झूम कर इतराती

हर रंग में श्याम उमंग नई ॥ (75)

 

वह प्रेम नगर का मतवाला

बस प्रेम लुटाता जाता है ।

कभी बाहुपाश में बांधे इसे

कभी उसे रिझाता जाता है ॥ (76)

 

यहां कान्हा हर पल पर्व करे

हर गोपी से संसर्ग करे ।

सखियां सोचें हम बड़ भागी

कान्हा ने चुना यह गर्व करें ॥ (77)

 

खुद मोहन हम संग विचर रहा

हम से बड़ कर कोई और नहीं ।

अनुपम सर्वश्रेष्ठ हम हैं

बिछड़े हम से चितचोर नहीं ॥ (78)

 

कान्हा ने गोपिन को दिया दिव्य प्रेम रूप सम्मान ।

हम सर्वोपरि सखियां सोचें उपजा हिय अभिमान ॥ (79)

 

कभी शांत नहीं होने देगा इन गोपिन को अभिमान ।

गर्व भंग कर सुख देने हुए मोहन अन्तर्ध्यान ॥ (80)

 

(श्री कृष्ण के विरह में गोपियों की दशा 81-133)

 

पवन बिना पतंग ज्यूं जल के बिना ज्युं मीन ।

विरह व्यथित सब गोपियां ज्यूं सरगम बिन वीण ॥ (81)

 

आलोकित उस भाल ने

मदमाती उस चाल ने ।

चित्त चुराया था सब का

उस माधव मदन गोपाल ने ॥ (82)

 

प्रेम जगा कर चित्त चुरा कर कहां गए गोपाल ।

मोहिनी मूरत देखे बिन सब सखियां हैं बेहाल ॥ (83)

 

मुरलीधर की विरह अगन में

प्रेमसखा की प्रेम लगन में ।

कृष्णमय सब हुई गोपियां

गूंजे कृष्ण ही धरा गगन में ॥ (84)

 

कृष्ण की जैसे चाल चलें सब

हास विलास भी मनमोहन सा ।

मैं ही कृष्ण हूं सब कहती हैं

सब में व्याप्त है सम्मोहन सा ॥ (85)

 

देखो मुझ को मिल कर सारी

मैं मनमोहन गिरिवर धारी ।

मैं ही कृष्ण हूं देख लो मुझ को

मैं मुरलीधर मैं बनवारी ॥ (86)

 

मैं ही कृष्ण हूं मैं हूं मोहन

इक आकर्षण इक आरोहण ।

मोह निशा को दूर भगाता

में उजियारे का सम्मोहन ॥ (87)

 

जी भर कर सब देख लो मुझ को

मैं ही कृष्ण प्यारा सब का ।

गीत अलौकिक मीत सभी का

मैं ही परम किनारा सब का ॥ (88)

 

मधुर मनोहर मैं आकर्षक

मैं ही कृष्ण हूं सब का रक्षक ।

दो छोरों के बीच स्थित हूं

मधुर हूं जितना उतना कर्कश ॥ (89)

 

मुझ को गौर से देख लो आ कर

शरद पूर्णिमा का मैं हिमकर ।

मैं उजियारे का संवाहक

रजनी भी मैं, मैं ही दिनकर ॥ (90)

 

यशुदा नंद दुलारा मैं हूं

सब का परम सहारा मैं हूं ।

जी भर कर सब देख लो मुझ को

सब का कृष्ण प्यारा मैं हूं ॥ (91)

 

जन जन का श्रृंगार मुझी से

सकल प्रेम रसधार मुझी से ।

मैं ही कृष्ण हूं जग संचालक

जग के सब आकार मुझी से ॥ (92)

 

आभा मंडल गगन यह सारा

धरा गगन में मेरा पसारा ।

मैं ही कृष्ण हूं, मैं हूं माधव

मैं ही रसिक हूं, मैं रस धारा ॥ (93)

 

नमन तुम्हे है हे मनमोहन बंशीधर भगवान ।

एक ही स्वर में सभी गोपियां करें कृष्ण गुणगान ॥ (94)

 

देवकी सुत यशुदा के लाल

कहां छिपे हो दीनदयाल ।

तुम बिन कौन सुने है अपनी

हे मुरलीधर हे गोपाल ॥ (95)

 

हे पीपल पाकर और बरगद

कहां छिपे हैं नंदनंदन ।

क्या तुम ने उन को देखा है

कुछ तो बतलाओ हे पावन ॥ (96)

 

हे पावन तुलसी बहिन बता

वो मनमोहन है छिपा कहां ।

तेरा कंठहार पहने जो सदा

उसे ढूंढे हैं सब यहां वहां ॥ (97)

 

हरि चरणों में तेरा प्यार बहुत

उन्हें प्रिय तेरा श्रृंगार बहुत

तुम उन की महिमा गाती हो

प्रिय उन को तेरा हार बहुत। (98)

 

हरि पास तेरे सदा रहते हैं

तुम्हे कृष्ण जीवनी कहते हैं ।

देखा तो नहीं उन्हें तुम ने कहीं

जिन्हें प्रेमी माधव कहते हैं ॥ (99)

 

कदंब नीम कचनार आक

हे कटहल जामुन बेल आम ।

उन्हें पाने की कोई राह कहो

कह दो कैसे मिलते हैं श्याम ॥ (100)

 

हे पृथ्वी देवी तू ही बता

हम करें कौन सी साधना ।

उस मोहन के ही दर्शन की

अब मन में जगी है कामना ॥ (101)

 

हे मृगी कहीं देखा तो नहीं

वो श्याम मनोहर तुम ने कहीं ।

हे तरुवर तुम ही बतलाओ

इस राह से वो निकला तो नहीं ॥ (102)

 

प्रेम के आवेश में सब गोपियां व्याकुल हुई

खोजते श्री कृष्ण को सब कृष्णमय ही हो गईं ।

दिव्य स्फुरणा से वहां घटने लगी लीलाएं सब

वंशी वट की प्रेम भूमि लीलाभूमि हो गई  ॥ (103)

 

कृष्ण की लीलाओं का अनुकरण सब करने लगी

इक बनी मुरली मनोहर इक पूतना बनने लगी ।

पूतना वध फिर वहीं अभिनीत जो होने लगा

कान्हा उस का दूध पीते पूतना मरने लगी  ॥ (104)

 

नाग बन कर इक सखी फुंकार इक भरने लगी

कृष्ण बन कर एक गोपी नाग को मथने लगी ।

तेरे दमन के हेतु ही मैंने लिया अवतार है

कालिया से इक सखी बन कृष्ण यह कहने लगी ॥ (105)

 

घुटनों के बल इक सखी बन कृष्ण यूं चलने लगी

कान्हा की पाजेब रुनझुन की ध्वनि करने लगी ।

मां यशोधा बन सखी ने कृष्ण को ऊखल से बांधा

और कान्हा जो बनी थी वह सखी डरने लगी ॥ (106)

 

इक सखी कहने लगी वन में भयानक आग है

ओ ग्वालो संभल जाओ यह किसी की चाल है ॰

मुझ को अपना जान कर सब अपनी आंखें मूंद लो

जो समर्पित हैं मुझे यह कृष्ण उन की ढाल है ॥ (107)

 

बंसी बजाती इक सखी गाएं लिबाने चल पड़ी

श्याम की यादों में खोई नृत्य इक करने लगी ।

इक सखी गलवाहियां डाले सखी से कह रही

कृष्ण मैं हूं देख लों यह चाल मेरी मधभरी ॥ (108)

 

ओढ़नी तान के ऊंगली पर

 बोली सखी बन श्याम ।

मैं ही कृष्ण हूं रक्षक सब का

 गिरिवरधारी श्याम ॥ (109)

 

छोड़ो सब यह रुदन क्रंदन

इन्द्र के मान का कर दूं मर्दन ।

भक्षण तूफानों का कर दे

सखा तुम्हारा यशुधानंदन ॥ (110)

 

मैं ही कृष्ण हूं देख लो मुझ को

 सब का रक्षक सब का प्राण ।

मेरी शरण में तुम आ जाओ

कर दूंगा सब का कल्याण ॥ (111)

 

मुझ को सखा बना कर देखो

सच्ची लगन लगा कर देखो ।

दूर करूं हर व्यथा सभी की

दुखड़ा मुझे सुना कर देखो ॥ (112)

 

जीवन की सब विपदाओं का

करता हूं मैं पल में मर्दन ।

मैं ही सब की परम गति हूं

सब कुछ कर दो मुझ को अर्पण ॥ (113)

 

मैं ही कृष्ण हूं सब का अपना

सखा सभी का भाग्य विधाता ।

उस के ही बलिहारी जाऊं

जो भी मन से पास बुलाता ॥ (114)

 

देख हरि के चरण चिन्ह तब हर गोपी मुसकाई ।

यहीं कहीं है अपना कान्हा मनमोहन सुखदाई ॥ (115)

 

धन्य धरा वो जिस की रज पर केशव ने हैं पांव धरे ।

दिव्य धरा की पावन रज को हर गोपी है शीश धरे ॥ (116)

 

कुछ दूरी पे गोपिन ने युगल चिन्ह कुछ देखे ।

है बड़भागिन ब्रज की बाला जिसे आएं हैं मोहन ले के ॥ (117)

 

यहीं कहीं पर होगी मनमोहन की प्राणप्रिया ।

जिस के कारण केशव ने हम सब को है छोड़ दिया ॥ (118)

 

सखियां सोचें यह ब्रजबाला एक नई पहचान चाहती ।

प्रेम संगिनी बन मोहन की अधर सुधा रस पान चाहती ॥ (119)

 

देखो तनिक यहां सब आ कर

युगल चिन्ह सिमटा घबरा कर ।

कांधों पर बिठाया होगा

केशव ने गोपी को उठा कर ॥ (120)

 

 चुनने को कुछ पुष्प मोहन ने

गोपी को कांधे से उतारा ।

बालों में उस ब्रजबाला के

लगे गूंथने प्रेम की माला ॥ (121)

 

उस गोपी ने सोचा जग में

मुझ से बढ़ कर कोई और नहीं ।

केवल मुझ को चाहें मोहन

मुझ बिन उन की भोर नहीं ॥ (122)

 

गोपी बोली प्यारे मोहन

थक कर तन यह चूर हुआ है ।

चढ़ कर तेरे ही कांधों पर

जाने को मजबूर हुआ है ॥ (123)

 

बोले मोहन गिरिवरधारी

कांधे पर चढ़ जाओ प्यारी ।

तुम तो मेरी प्रेम सखा हो

मैं हूं तेरा ही बनबारी ॥ (124)

 

कांधे पर चढ़ने को गोपी जैसे ही तैयार हुई ।

अंतर्ध्यान हुए मोहन तब गोपी रो बेहाल हुई ॥ (125)

 

 हाथ मलूं मैं पछता कर

कहां छिपे हो तुम जा कर ।

दर्शन दे दो प्यारे मोहन

दीन हीन हूं मैं करुणाकर ॥ (126)

 

वहीं पे पहुंची सभी गोपियां

मोहन के पगचिह्न सहारे ।

प्रियतम के असह्य वियोग से

अचेत पड़ी गोपी को निहारें ॥ (127)

 

लौटी चेतना जब गोपी की

सब को वह वृतांत सुनाया ।

अहंकार ने कैसे उस से

मोहन का अपमान कराया ॥ (128)

 

मिल कर सारी लगी ढूंढने

अपने प्रियतम प्रेम सखा को ।

सब के रक्षक प्राण सभी के

मनमोहन की प्रेम सुधा को ॥ (129)

 

आगे दुर्गम बीहड़ वन था

अंधकार का ही शासन था ।

मृतप्राय सब लौटी गोपियाँ

आशा कोई न आश्वासन था ॥ (130)

 

मन में सब के थे मनमोहन

तन पर मोहन का सम्मोहन ।

जीभा पर भी नाम उसी का

सामूहिक था वह आरोहण ॥ (131)

 

यमुना पुलिन पर रमण रेती में

कृष्ण मय सब हुई गोपियाँ ।

कृष्ण दर्श की उत्कंठा ले

गान करें सब गोपी टोलियाँ ॥ (132)

 

विरह व्याकुल गोपियाँ करें कृष्ण गुणगान ।

हाथ जोड़ विनती करें दर्श दे दो भगवान ॥ (133)

 

(गोपिकागीत 134 – 171)

 

तेरे कारण बढ़ गई है ब्रज की महिमा आपार ।

वैकुंठ से बढ़ कर लगे है तेरी यह धरती महान ॥ (134)

 

तेरे जन्म के कारण इस का धूलिकण भी दिव्य बना ।

इस भूमि में हर पल रहती दिव्यता हर संपदा ॥ (135)

 

तेरा पता हम पूछ रही हैं हर अपने बेगाने से

तेरे दर्श की प्यासी हम अब समझे न समझाने से ॥ (136)

 

दो नैनों के तीर चला कर

तुम ने क्या उपकार किया है ।

बिना अस्त्र के, बिना शस्त्र के

हम सब को तो मार दिया है ॥ (137)

 

जब जब विपद पड़ी हम सब पर

तुम बन कर रखबारे आए ।

बृषभासुर और व्योमासुर से

तुम ने ही तो प्राण बचाए ॥ (138)

 

नाग नथैया बन कर तुम ने

हम सब का कल्याण किया ।

इन्द्र कोप से तुम ने ही तो

हम को जीवन दान दिया ॥ (139)

 

जब यूं ही घायल करना था

तो क्योंकर प्राण बचाए थे ।

जब छोड़ के यूं ही जाना था

तो क्यों कर स्वप्न दिखाए थे ॥ (140)

 

तुम यशुधा के ही पुत्र नहीं

चंद लीलाओं के चित्र नहीं ।

सब के ही प्राण सखा तुम हो

हम गोपिन के ही मित्र नहीं ॥ (141)

 

उस निर्गुण निराकार ब्रह्म ने

तुझ में खुद को साकार किया ।

इस धरा की रक्षा हेतु ही

है तुम ने यह अवतार लिया ॥ (142)

 

तेरे चरण कमल संताप हरें

हर दोष, विघ्न और पाप हरें ।

जो उन की शरण में जाता है

उसे अभय करें प्रलाप हरें ॥ (143)

 

हम को भी चरण शरण दे दो

भक्तिमय अन्तःकरण दे दो

इस शीश पे धर दो हाथ प्रभु

इक दिव्य नया अवतरण दे दो ॥ (144)

 

ब्रज की रक्षा के कारण तुम

चरण धरे काली फन पर ।

इन्हीं पद सरोज को माधव

धर दो इस कोमल तन पर ॥ (145)

 

तेरी एक छुअन ही पल क्षण में

मन का हर इक संताप हरे ।

जन्म जन्म की तृष्णा हर ले

 जाना अंजाना पाप हरे ॥ (146)

 

मन्द मन्द मुस्कान तुम्हारी

मान मद को चूर करे ।

ब्रज बासिन के सब दुःख हर ले

हर इक व्याधा दूर करे ॥ (147)

 

हम से क्यों कर रूठ गए हो

मनमोहन मुरलीधर श्याम ।

मधुर मनोहर रूप दिखा कर

दे दो सुख अतुलित अभिराम ॥ (148)

 

मधुर तुम्हारी वाणी हर पल

उच्चरित करती शब्द मधुर ।

रसिक जनों को मधुर बना दें

नयन तुम्हारे अधर मधुर ॥ (149)

 

उन्हीं मधुर अधरों का मोहन

हम को भी रसपान करा दो ।

मधुर मनोहर छवि दिखा कर

जन्म जन्म की प्यास बुझा दो ॥ (150)

 

विरहनियों की विरह हरे है तेरा लीला गान ।

जीवन रूपी आनंददाई कथा अमृत रसपान  ॥ (151)

 

मंगलदाई परमहित कारी मोहन रस आह्वान ।

श्रवण मात्र से निर्मल कर दे माधव कीर्ति गान ॥ (152)

 

कभी तुम्हारी चंचल चितवन मन में आनंद भरती थी

तेरी हर इक क्रीड़ा मोहन अंतस रसमय करती थी ।

आज उन्हीं की याद क्यों प्रियवर मानस को सुख देती है

कल तक जो हम ब्रज बासिन को आंदोलित  सी करती थी ॥ (153)

 

पद त्रान बिना यह चरण सुकोमल

कंटक पथ पर जब धरते हो ।

चुभते हैं इस मन में कांटे

गोधन ले जब तुम चलते हो ॥ (154)

 

गोधूलि में गायों के संग

बंसी बजाते और मुस्काते ।

धूलि सनी श्रमबिंदु सजी

वह छवि देख हम नीर बहाते ॥ (155)

 

हम रूप सुधा अमृत रस पाएं

तेरा नाम जपें तेरा नाम ही गाएं ।

यह शीश धरा इन चरनन पर

इन चरणों पर बलिहारी जाएं ॥ (156)

 

 उन्हीं चरण कमलों को प्रियतम

हृदय मंडल पर आ कर धर दो ।

जन्म जन्म की व्यथा मिटा कर

अंतःकरण को निर्मल कर दो ॥ (157)

 

बंसी समझ अधरों से लगा लो

अधरामृत रस पान करा दो ।

दुनिया के सब रंगों पर तुम

अपने प्रेम का रंग चढ़ा दो ॥ (158)

 

एक झलक तेरी पाने को

हम प्राण न्योछावर करती हैं ।

तेरे कारण हम जीती हैं

तुझ पे ही हम मरती हैं ॥ (159)

 

बंसी तुम बड़ भगिनी करो अमृत रसपान ।

अधरों से तुम को हैं लगाए कृपा सिंधु भगवान ॥ (160)

 

जिस बड़भागी ने इस जग में

अधरामृत रस पान किया ।

हर पल हर क्षण उस प्रेमी ने

तेरे गुण का गान किया ॥ (161)

 

अधरों से हम को भी लगा लो मनमोहन नंदलाल ।

तेरे रंग में रंग जाए हम माधव मदन गोपाल ॥ (162)

 

जब तुम करते हो वन बिहार

मन क्षुब्ध होता है अपार ।

तुम को देखे बिन चैन नहीं

बैठी रहती हैं पथ निहार ॥ (163)

 

लोटो तुम जब सांझ ढले

मन में कितने ही दीप जले ।

देख तुम्हारी मोहिनी मूरत

हर विरह भाव फिर हाथ मले ॥ (164)

 

फिर मुग्ध भाव से मस्तक पर

हम देखें लट बिखरी बिखरी ।

पलकों का गिरना रुक जाए

हर नज़र बने ठहरी ठहरी ॥ (165)

 

पूरन करते हर अभिलाषा

चरण कमल तेरे गिरिधारी ।

श्रीलक्ष्मी से सेवित हर पल

पद सरोज पर मैं बलिहारी ॥ (166)

 

चरण कमल तेरे मनमोहन

विपदाओं का करते मर्दन ।

उन्हीं पद सरोज से कर दो

तन मन पर तुम अपना नर्तन ॥ (167)

 

शांत करो हर व्यथा नाथ अब

हर लो मन का हर संताप ।

रोग शोक को दूर मिटा दो

करुणामय मोहन घनश्याम ॥ (168)

 

विरह का संताप हरे तेरे अधरामृत का पान सखे ।

सदा ही बरसे आनंद धारा फिर हर पल नर्तन गान सखे ॥ (169)

 

अपने उन्हीं अधरों का मोहन

हम को भी रसपान करा दो ।

अपने प्रेम की ज्योति जला कर

जन्मों का यह तिमिर मिटा दो ॥ (170)

 

हम तुम्हारी हैं सदा से तुम हमारे हो ।

विरह के सागर में बस इक तुम सहारे हो ॥ (171)

 

(भगवान का प्रकट हो कर गोपियों को सांत्वना देना 172- 210)

 

विरह में प्रलाप फिर सब गोपियाँ करने लगीं ।

 विवल हो हर आँख से फिर जलधार सी झरने लगी ॥ (172)

 

हे हरी अब दर्श दे दो

गोपियाँ सब कह रहीं ।

नयन से पीड़ा जो फूटी

अश्रू बन कर बह रही  (173)

 

करूण स्वर में रुदन सुन तब

प्रकट भये गिरिधारी ।

नवचेतना सब में जागी

सब कृष्ण पर बलिहारी ॥ (174)

 

मंद मंद मुस्कान है मुख पर

कंठ में साजे है बनमाल ।

कटि पीताम्बर हाथ में बंसी

अनुपम अद्भुत नन्द के लाल ॥ (175)

 

गोपीवल्लभ श्यामल सुंदर

परम मनोहर हैं गोपाल ।

मदन मनोहर माधव मोहन

शोभित हैं यशुदा के लाल ॥ (176)

 

जैसे ही वो परम मनोहर निराकार साकार हुआ ।

मृत प्राय सब गोपिन में नव जीवन का संचार हुआ ॥ (177)

 

इक सखी श्री कृष्ण के

हाथों को ले कर हाथ में ।

अति मुग्ध आनादित हुई

पा कर सखा को साथ में ॥ (178)

 

दूसरी गोपी ने रखा

कांधे पर केशव का हाथ ।

फिर स्वयं इतराने लगी

मेरे संग है नाथो का नाथ ॥ (179)

 

एक बृज बाला ने पकड़ा पान अपने हाथ से ।

जिस को माधव ने चवाया था बड़े ही चाव से ॥ (180)

 

विरह में इक जल रही

गोपी ने मोहन के चरण ।

धर दिये छाती पे अपनी

और फिर करती नमन ॥ (181)

 

ओंठ दांतों से दबा गोपी प्रणय के भाव से ।

वाण नैनों से चला देखे सखा को चाव से ॥ (182)

 

अपनी आँखों से सखी

रसपान इक करने लगी ।

मुखकमल का प्रेम अमृत

नयन में भरने लगी  (183)

 

सातवीं गोपी ने माधव को नयन के रास्ते ।

अपने हृदय में बिठाया नित्त दर्श के वास्ते ॥ (184)

 

मूँद कर अपने नयन वह कृष्ण से इक हो गई ।  

कृष्ण उस में खो गए और वो सखा में खो गई ॥ (185)

 

गोपिन के संग माधव ने फिर

यमुना पुलिन प्रवेश किया ।

प्रेम से ऊँचा कुछ नहीं जग में

सब को यह संदेश दिया ॥ (186)

 

विरह दुख सब हुआ पराजित

सारी गोपियाँ परम उल्लासित ।

आनंद मगन हुई हर बाला

सब का अंतस मोहन शासित ॥ (187)

 

शीतल मंद समीर धरा पर

सुरभित पवन झंकोरे हर पल ।

पूर्ण चन्द्र की अद्भुत शोभा

भ्रमरों से गूंजित यमुना तट ॥ (188)

 

अंधकार का लेश नहीं था

विरह दुख भी शेष नहीं था ।

आनंद का आलोक था छाया

लौकिक यह कोई देश नहीं था ॥ (189)

 

यमुना जी की लहरों ने फिर

बालू का इक मंच बनाया ।

महारास आमंत्रण हेतु

कल कल का इक नाद सुनाया ॥ (190)

 

कृष्ण सखा की छवि देख कर

गोपिन मन उल्लास हुआ ।

मिट गई हर इक व्याधि पीड़ा

अद्भुत रस आभास हुआ ॥ (191)

 

वक्षस्थल की ओढ़नी गोपिन दीनी बिछाय ।

प्रवल प्रेम वश मोहन उस पर बैठे जाए ॥ (192)

 

गोपिन बीच हैं सज रहे माधव मदन गोपाल ।

देख अलौकिक रूप सब नाचत दई दई ताल ॥ (193)

 

धरा बिछोना है जिस का छत्र बना आकाश ।

ओढ़नी पर है बैठा रसिया वह रस राज ॥ (194)

 

रूप अनूप वह देख के आनंद मग्न हर बाला ।

प्रेम पीयूष पिलाता सब को यशुद्धा सुत नन्द लाला ॥ (195)

 

टेढ़ी भौहें मोहक चितवन

मंद मंद मुस्कान लिए ।

स्वागत करती मनमोहन का

सब सखियाँ आभार लिए ॥ (196)

 

सुंदरता इस जग की सारी

 मनमोहन में आन समाई ।

सखियों मध्य सजे हैं माधव

और माधव में सारी लुकाई ॥ (197)

 

शब्दों में सामर्थ्य कहाँ है

सुंदरता का करे बखान ।

हाथ जोड़ कर शब्द भी करते

गोपी वल्लभ का जय गान ॥  (198)

 

किसी ने गोदी में लिए

मनमोहन के पद पंकज ।

और किसी गोपी ने रखे

गोदी में केशव के कर  (199)

 

श्याम सुंदर को देख के सब अपने भाग्य पे इतराएँ ।

कैसी तेरी कृपा है मोहन बार बार यह दोहराएँ ॥ (200)

 

अपने प्रियजनों को क्यों कर

छोड़ गए थे तुम घनश्याम ।

रूठ गए क्यों हम से मोहन

क्यों बिसराया हम को राम ॥ (201)

 

हम सज धज कर सब जग तज कर

आए थे तेरी शरनाई ।

तुम ने क्यों हम को ठुकराया

कुछ तो कहो ऐ कन्हाई ॥ (202)

 

जो तुम को नहीं प्रेम हैं करते

उन को भी तुम प्रेम करो ।

फिर जो तुम से प्रेम हैं करते

क्योंकर उन को तजो कहो ॥ (203)

 

सब के ही तुम मीत नहीं क्या

हर इक से तुम्हें प्रीत नहीं क्या ।  

हम को फिर क्यों तरसाओ

प्रीत तुम्हारी रीत नहीं क्या ॥ (204)

 

मेरी खातिर तुम गोपिन ने

लोक लाज मर्यादा तज दी ।

ममता तृष्णा अहं भी त्यागे

बैर विरोध और वाधा तज दी ॥ (205)

 

मुझ पर ही सब रहो केन्द्रित

इसी हेतु मैं छिपा था प्यारी ।

प्रेम पिपासा बड़े निरंतर

यही चाहता श्याम बिहारी ॥ (206)

 

बाहर से मैं लुप्त हुआ था

होते हुए भी गुप्त हुआ था ।  

वो भी प्रेम का ढंग ही जानो

जागे हुए जो सुप्त हुआ था ॥ (207)

 

योगी यति भी छोड़ न पाएँ

मन में फैला यह संसार ।

मेरी खातिर किन्तु तुम ने

छोड़ दिया अपना घर बार ॥ (208)

 

तुन सब के इस भाव के कारण

रस की बहती धार के कारण ।  

जन्म जन्म तक ऋणी रहूँगा

प्रेम समर्पण त्याग के कारण ॥ (209)

 

युगों युगों तक प्रेम तुम्हारा

करेगा उद्धृत यह संसार ।

सदियों तक यह करता रहेगा

गोपी प्रेम की जयजयकार  (210)

 

(महारास 211- 258)

 

भय चिंता और शोक रहा ना

विरह ताप कुछ शेष बचा ना ।

श्याम रंग ने सब रंग डाला

दूजा कोई रंग बचा ना ॥ (211)

 

खड़ी हो गई सारी गोपियाँ

थाम के इक दूजे का हाथ ।  

महारास आरंभ हैं करते

केशव सब नाथों के नाथ ॥ (212)

 

रूप अनेक बना कर तब फिर प्रकट हुए श्री रंग ।

सज गए मोहन गोपिका वल्लभ हर गोपी के संग ॥ (213)

 

कृष्ण गोपी और गोपी कृष्ण का

बना दिव्य मनोहर क्रम ।  

अंतस को आनंद से भरने

हरने को दुविधा हर भ्रम  (214)

 

सहस्त्र गोपियों संग सुशोभित

मधुर मनोहर कृष्ण उल्लासित । .

महारास आरंभ हुआ फिर

आनंद भी अब हुआ आनंदित ॥ (215)

 

लेकर विमान सुर साज तभी

आकाश में पहुंचे देव सभी ।

रास पर्व की ले उत्कंठा

नभ रसिक जनों की भीड़ सजी ॥ (216)

 

 

बरसें पुष्प दुन्द्भी बाजे

देव गंधर्व गगन में साजे ।

हरि के यश का गान करें सब

मोहन का सब नाम आराधे ॥ (217)

 

रास मंडल की हर इक गोपी

मोहन के संग नाच रही है ।

घुँघरू के भी संग संग अब

पाँव की पाजेब बाज रही है ॥ (218)

 

यमुना किनारे रमण रेती पर

कृष्ण की शोभा दमक रही है ।  

पीत स्वर्ण मणियों में जैसे

नीलमणि इक चमक रही है ॥ (219)

 

ठुमक ठुमक पग आगे बढ़ायेँ

और कभी पीछे ले जाएँ ।

बड़े वेग से कभी घूम कर

हाथ उठा कर भाव बताएं ॥ (220)

 

भौंह नाचा कर कभी मुसका कर 

 पतली कमर को कभी घुमा कर ।  

हिल हिल कर कानों के कुंडल

इतराएँ गालों पर आ कर  (221)

 

श्रमबिन्दु झलकें हर मुख पर

केश खुले जाते रह रह कर ।

कंचुक पट भी हिलता जाये

नृत्य भी नाचे सब बिसरा कर ॥ (222)

 

श्यामल मेघ मण्डल से मोहन

दामिनी सी हैं गोरी गोपियाँ ।

श्यामल पीत बने हैं माधव

पीत श्यामल सारी गोपियाँ ॥ (223)

 

कृष्ण से सट कर नाच रहीं सब

मधुर गान गातीं हैं स्स्वर ।

राग की लय और नृत्य ताल से

विश्व समूचा गूंजित है अब ॥ (224)

 

कृष्ण के स्वर में स्वर को मिलाये

कोई ऊंचे स्वर में गाये ।

अनुपम स्वर को सुन कर मोहन

वाह वाह करते हरषाए ॥ (225)

 

उसी राग में ध्रुपद गान इक सखी करने लगी ।

कृष्ण से गुणगान सुन चरणों में सिर धरणे लगी ॥ (226)

 

नृत्य करती इक सखी को थकन ने जब धर लिया

कृष्ण के कांधे पे उस ने शीश अपना धार दिया ।

चूमती है इक सखी मोहन के कोमल हाथ को

अपने सखा को प्रेममय सुरभित से अपने नाथ को ॥ (227)

 

नृत्य करती इक सखी के कर्णकुंडल हिल रहे

उस की आभा से सखी के गाल भी थे खिल रहे ।

उस ने अपने गाल को मोहन के गालों से लगाया

श्याम घन से मेघ दुधिया जैसे आ कर मिल रहे ॥ (228)

 

कोई गोपी पाँव की पांजेव की झंकार पर

नाचती थी घुंघरुओं के ताल की आवाज़ पर ।

श्याम के कर कमल उस ने अपने तन पर धर लिए

नाचती थी वो निरंतर श्याम के सुर साज पर ॥ (229)

 

धन्य हैं ब्रज गोपियाँ सब

धन्य ब्रज की यह धरा भी ।

जिस पे नाचे गोपीमोहन

और उन की वल्लभा भी ॥ (230)

 

प्रेममय वो श्याम सुंदर प्रेम का सम्मान करते

भ्रमण करते गोपियों संग नाचते सहगान करते ।

बांध कर बाहों में उस ने मुक्त सब को कर दिया

दिव्य अपनी इक छुअन से सब का ही कल्याण करते ॥ (231)

 

गाल पर लटकी लटाएँ कृष्ण का गुणगान करती

हर अदा हर भाव मुद्रा श्याम का ही नाम जपती ।  

गोपियों के कर्ण कुंडल कृष्ण के कारण ही शोभित

एक लय सुर ताल में सब इस धरा पर पाँव धरती  (232)

 

कंगन बाजे नुपूर बाजे बाजे घुँघरू करधनी के ।

मोहन संग नाचे सब सखियाँ पूर्णचंद्र की चाँदनी में ॥ (233)

 

गान करे हर ब्रज की बाला भँवरे भी गुंजान करें ।

सब के सुर में  सुर को मिला कर अद्भुत इक सहगान करें ॥ (234)

 

कभी सखिन को अंग लगा ले

मुक्त हंसी के कभी ठहाके ।

दोषरहित नन्हें बालक से

मोहन खेलें सब बिसरा के ॥ (235)

 

मिला जो श्यामल अंग से अंग

सब पर छाया मोहन रंग ।

प्रेममय सब हुई गोपियाँ

पा कर श्यामल मोहन संग ॥ (236)

 

मोहन की प्यारी चितवन है

बिखरे केश और आभूषण हैं ।

अस्त व्यस्त हैं वस्त्र सभी के

कैसा अद्भुत आकर्षण है ॥ (237)

 

टूटे हार सुमन बिखरे हैं

कंचुक पट न अब संभले है ।

प्रेम दशा को कौन बखाने

तन मन सब के अब महके हैं ॥ (238)

 

देख मोहन की रासक्रीड़ा को

मोहित हो गईं देवांगनाएँ ।

तारो ग्रहों के साथ चंद्रमा

विस्मित चकित देखता जाए ॥ (239)

 

अपने आप में सदा आनंदित हर पल हैं भगवान ।

फिर भी हर गोपी संग नाचें मुरलीधर घनश्याम ॥ (240)

 

नृत्य और सहगान के चलते

श्रमबिन्दु मुख पर जब झलकें ।

अपने कोमल हाथों से फिर

मुख पोंछे मोहन गोपिन के ॥ (241)

 

भई आनंदित सभी गोपियाँ

स्वागत करें घनश्याम का ।

अपनी मधुर मुस्कान के द्वारा

अभिनंदन करें सुखधाम का ॥ (242)

 

फिर मोहन ने गोपिन के संग

यमुना जल में बिहार किया ।

रास क्रीडा को महारास को

उत्सव और त्यौहार किया ॥ (243)

 

गोपिन के केसर की रंगत

केशव की बनमाला पर थी ।

मोर पंख के रंग की आभा

ब्रज की हर इक बाला पर थी ॥ (244)

 

अद्भुत इक संसार था हर पल

भँवरों का गुंजार था हर पल ।  

हर पल दिव्य मनोहर पल था

निराकार साकार था हर पल ॥ (245)

 

जल की प्रेम बौछारें हर पल

दिव्य सी प्रेम फुहारें हर पल ।  

सुमन वृष्टि करते थे सुर सब

पल पल पर्व बहारें हर पल ॥ (246)

 

गूंज रहे थे भौरे हरे पल

उठती प्रेम हिलौरें हर पल ।

मोहन पे जल ड़ाल रही सब

सखियाँ प्रेम उकेरें हर पल ॥ (247)

 

गोपिन को इक उपवन में फिर ले गए श्याम बिहारी ।

सुंदर सुरभित सुमन से पोषित दिव्य वाटिका सारी ॥ (248)

 

पुष्पों के सौरभ को ले कर बहती मंद समीर

कैसा आलोकिक दृश्य बना है यमुना जी के तीर ।

गोपिन के संग विचर रहे हैं ऐसे श्याम बिहारी

जैसे चंदा विचर रहा हो रशमियों के बीच ॥ (249)

 

स्थूल दृष्टि से समझ न पाये

महारास की महिमा कोई ।

अनुकंपा जिस पर मोहन की

महारास को समझा सोई ॥ (250)

 

गुप्त भाव महारास का जाने वो मनमीत ।

कृष्ण के आशीष से जिस मन जागी प्रीत ॥ (251)

 

महारास को जानिए परममिलन उल्लास ।

परमदिव्य आनंदमय परमकृपा उजास ॥ (252)

 

रसिकजनों का रस परम पर्व परम महारास ।

पल पल उस की झलकियाँ रसमय परम आभास ॥ (253)

 

चेतनमय सब गोपियाँ परमचैतन्य घनश्याम ।

महारास उत्सव परम गतिमान अभिराम  (254)

 

मोहन की मोहक छटा दिखलाए महारास ।

गोपिन को मोहन घटा दिखलाए महारास ॥ (255)

 

परमदिव्य पावन परम रसमय वह रसराज ।

रसिकजनों का परमसुख आनंदमय महाराज ॥ (256)

 

कृष्ण रूप ही जानिए महारास प्रसंग ।

राधा माधव हर घड़ी रहे भक्त के संग ॥ (257)

 

परमगोप्य  चेतन्यमय महारास प्रसंग ।

रसिक जनों के हिय बसत सदा सदा श्री रंग ॥ (258)

              .................................कपिल अनिरुद्ध

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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