Tuesday, 26 January 2021

कवीश्वर वाल्मीकि - प्रवीण शर्मा

 

 

“ कवीश्वर वाल्मीकि ”

अध्याय – 1 (वंदना)

महाऋषि मुनियों की धरती है भारत ।

वीर शहीदों गुणियों की धरती है भारत।

भारत नहीं भूखंड कोई यह जान लो।

सर्वोत्तम इसे तीरथधाम मान लो।

प्रेम त्याग की धारा इस में अविरल बहती रहती है

युगों युगों से युद्ध शांति की गाथा कहती रहती है  

अगणित हुए तपस्वी जिनकी महिमा वसुधा गाती है।

युगो युगो से   जनमानस में आत्मज्ञान जगाती है।

रामकथा भागीरथी का मिला जिन्हें सम्मान

वही महर्षि वाल्मीकि आदिकवि महान।

आशीष मुझे दो हे प्रभुवर गुणगान उन्हीं का कर मैं सकूँ।

अपने और सब के अंतस को प्रेम भाव से भर मैं सकूँ ।

 

प्रेम दया और करुण रूप वे                                                            

रामकथा के अग्रदूत वे ।                                                        

आदि कवि की संज्ञा पाई                                                                       परम संत वे धरा भूप वे ॥                                                         

रामायण के रचनाकार को बारंबार प्रणाम ।

सब पर हों अनुकूल सदा वे वाल्मीकि सुखधाम ॥

अध्ययय -2 (आरंभिक जीवन)

रत्नाकर के नाम से पहचान थी ।

बीहड़ वन के कठिन कर्म से शान थी ॥

उन के जन्म की गाथा है अद्भुत बड़ी।

कहीं हुए पैदा कर्म भूमि कहीं ॥

सुत थे वे प्रचेता ब्रह्म के उन्हीं के घर में जन्म लिया ।

रामायण के उतरकाण्ड में स्वयं ही अपना परिचय दिया॥

 

नवांकुर को ऋषिधाम संभाल रहा था ।

मात पिता का नेह शिशु को पाल रहा था ॥

फिर घटना एक घटी इक दिन जिस ने जीवन ही मोड़ दिया।

माँ के आँचल को बालक ने अंजाने में ही छोड़ दिया ॥

और खेल खेल में कुटिया द्वार को लांघ गया वह ।

वन उपवन में अवरोधों को फांद गया वह ॥

किन्तु जब देखा कि मैं तो भटक गया हूँ ।

इधर उधर कुछ राह न सूझे अटक गया हूँ ॥

रो रो कर फिर लगा बुलाने अपनी मात को।

जिस ने अब तक साथ न छोड़ा ऐसे तात को ॥

भटके बालक को चुपके से

देख रही थी एक भीलनी

ममता का सैलाब था उमड़ा

दर्द की बदली छाई घनी ॥

बालक मां को बुला रहा था

रो-रो कर कुछ सुना रहा था।

बांझ की संज्ञा से घायल उस

भीलनी को रुला रहा था ॥

बिन बालक की वह इक माता

जग के नश्तर झेल रही थी ।

जीवन गाड़ी जैसे-तैसे

बस यूं ही वह ठेल रही थी ॥

बिन माता के बालक का दुख देख सकी ना

निर्जन वन में नन्ना बालक छोड़ सकी ना ।

होले से पुचकारा उसको खींच ले गई

छिपा के जैसे हाथ में लौ का दीप ले गई ॥

 

अध्याय-3 (रूपान्तरण)

कुटुंबजनों के पालन का फिर मार्ग चुन लिया l

लूट खसूट का अपना नया इक नियम बुन लिया ll

उस के संगी साथी थे सब, जंगल अपना था।

उनसे किसी का बचके निकलना नामुमकिन था ll

जंगल का कानून ही तब चलता था वहां l

धर्म अधर्म की बात ना कोई करता था वहां ll

गुजर रहे राही को वे सब रोक लिया करते थे l

जो कुछ उनके पास मिले सब लूट लिया करते थे ll

इसी तरह से रत्नाकर का जीवन बीत रहा था।

करम गति के पहिए को वह खींच रहा था।

 

पूर्व संस्कारों का चक्कर जब भी रुकने लगता है।

फलते हैं शुभ कर्म उसी पल सत्संग मिलने लगता है।

रत्नाकर के जीवन में भी  झंझावत  इक आया।

दिशा बदल गयी झटके से प्रभु ऐसा चक्कर चलाया  l

एक दिवस जब वन में भटके थे कुछ राही ।

पथ खोजें, भ्रमित हुए अटके कुछ राही l

उसी समय संगीत के स्वर वहां लगे बिखरने।

वीणा के संग नारद जी भी दिखे बिचरते।

देख मुनि को रत्नाकर ने दौड़ लगाई।

पकड़ उन्हें झट अपने रौव की झलक दिखाई।

जो कुछ तेरे पास है दे दो हे मुनीराया।

वरना मौत के घाट उतारूं हुक्म सुनाया।

सुनकर कर्कश वचन मुनि बस शांत खड़े थे।

दया के सिंधु गुरु रूप कुछ सोच रहे थे।

 

रत्नाकर में छिपा बाल्मीकि देख चुके थे।

अपनी दिव्य मोहनी उस पर फेंक चुके थे।

मधुर स्वर में नारद जी ने प्रश्न किया तब।

कौन है जिस के कारण तूने पाप  किया सब।

फिर मुस्का कर धीरे से बोले मुनि राय।

किस के हेतु अनाचार तुम करते आए।

ह्रदय को झकझोर गई मुनिवर की वाणी।

गहन सोच में डूब गए हुए पानी पानी।

कुछ संकुचाकर रत्नाकर ने शब्द सुनाऐ।

जिसके कारण बिधना ने ये कर्म कराए।

अपने कुल परिवार का पोषण करता हूं मैं।

इसीलिए इस कर्म को धारण करता हूं मैं।

जिनके लिए इस नीच कर्म में लिप्त हुए हो।

सत्य अहिंसा करुणा से जो रिक्त हुए हो।

पाप में भागीदार बनेंगे क्या घर वाले l

तेरे दुष्कर्मों को सहेंगे क्या घर वाले l

संस्कारों के बीच निरंतर जिनके कारण रोप रहे हो।

पूछो भोगेंगें कर्मों को स्वयं को जिसमें झोंक  रहे हो।

 

विस्मित होकर रत्नाकर ने

देवऋषि नारद को देखा।

मंद मंद मुस्कान थी मुख पर

भय चिंता की कोई न रेखा।

 

अब तक ऐसा कोई न देखा

जीवन से जिसे प्रीत न हो

मेरी धमकी सुन् कर भी जो

किंचित भी भयभीत न हो

 

 

एक तरफ इक झंझावात था

दूसरे का मन पूर्ण शांत था

एक तरफ तूफ़ान था मन में

दूसरे के मन प्रेम गान था

 

शांत मूर्ति देख अचंभित

हुए बिना वह रह न सका

मौन रहा कुछ देर भ्रमित सा

मुख से कुछ भी कह न सका

 

 

ऊंचे स्वर में फिर वह बोला

रुको अभी बतलाता हूं।

तेरे इन प्रश्नों को लेकर

सीधा घर को जाता हूं।

 

जब तक बापिस  लौट न आऊं

कहीं नहीं तुम जाओगे

अपने उलझे प्रश्नों का तुम

सीधा उत्तर पाओगे ।

 

ऋषि बोले निश्चिंत रहो

मैं कहीं नहीं अब जाऊंगा।

जब तक वापस आओगे

 मैं हरी की महिमा गांऊगा।

 

प्रश्न समूचे  देवऋषि के

पूछ लिए परिवार से जा कर

अपने सब कर्मों का क्योंकर

भागीदार केवल रत्नाकर l

 

जब तक तुम नन्हे बालक थे

मेरा धर्म था पालन करना

पिता बोले अब वृद्ध हूँ मैं तो

कर्तव्य तुम्हारा पालक बनना l

 

तुम पालक हो रक्षक भी तुम

तुम ने ही है कुल को बचाना

तेरा धर्म है प्रिय रत्नाकर

अपने कुल की नाव चलाना l

 

धर्म के पथ पर न्याय के पथ पर

हम सब तेरे साथ चलेंगे

लेकिन अपराधों के रस्ते

तय करने हैं तुम्हे अकेले

 

सब उपभोग किया करते थे

छीने अन्न का लूट के धन का

लेकिन किसी ने साथ दिया ना

भ्रमित हुए उस रत्नाकर का l

 

                                                                                                  उत्तर सुनकर प्रश्नों के वह गहन व्यथा में डूब गया ।

कुल परिवार के स्वार्थ से भीतर ही भीतर टूट गया ।

नहीं कहा कुछ भी उसने चुपचाप वहां पर खड़ा रहा।

और कोई प्रतिक्रिया सुनने वह उसी द्वार पर अड़ा रहा ।

मन के भीतर शोर मचा था झंझावत प्रश्नों का छाया ।

कौंध रही थी शंका पल पल किसने जग प्रपंच रचाया।

क्यों कर सुख दुख के झूले हैं  क्यों कर है यह रुदन क्रंदन।

क्यूं जीवन का आना जाना क्यूं है मोह ममता के बंधन।

मन में दृढ़ संकल्प ठान कर ।

मोह के पल में घेरे तोड़कर।

बिन बोले दहलीज लांघ कर।                                                                                                           घर को त्याग दिये रत्नाकर।

उदय हुई फिर  भाग्य की रेखा।

मिट गया सब कर्मों का लेखा।

ज़ोर  लगा कर सब ने पुकारा ।

उसने मुड़कर  भी ना देखा।

पहुंचे उसी पेड़ के नीचे।

वन में जहां पर ऋषि बंधे थे।

गिरे संत चरणों में रत्ना।

अँधियारे इक साथ मिटे थे।

 

अध्याय - 4 (वाल्मीकि आश्रम)

 

 

पश्चाताप के बहते आंसू अंतस् मन को धो रहे थे।

प्रेम के उद्गार निरंतर गुरु चारणों को भिगो रहे थे l

देव ऋषि कुछ करके साधन।

बैठ गए वही जमा के आसन।

रत्नाकर के मन की ज्वाला।

करने लगे शांत ज्यू सावन।

निर्मल पावन ज्ञान की गंगा उतर रही ह्रदय के कानन।

वही अपावन बंजर धरती बनने लगी थी परम सुहावन।

धर्म के ऊंचे नियम बता कर गुरु मंत्र प्रदान कर दिया।

रत्नाकर से वाल्मीकि तक मार्ग बहुत आसान कर दिया।

राम नाम महामंत्र की महिमा को पहचान।

रत्ना के हृदय में फेंका अक्षर बीज महान l

 

देवर्षि की कृपा दृष्टि से बीहड़ वन में मंगल छाया।

राम नाम के मंत्र जाप से अभय दान रत्ना ने पाया।

अंधियारे को चीर के मुनिवर रत्ना में प्रकाश भर गये।

बड़े लक्ष्य से जोड़ रतन को परम गुरु प्रस्थान कर गए।

रत्नाकर के जीवन में अब भारी परिवर्तन था आया।

छूट रही थी मन की चपलता केवल राम नाम था भाया।

तमसा नदी का वही किनारा नित्य जहां भय त्रास  था छाया।

गूंजे अब कोयल के स्वर थे हुआ मनोरम कानन सारा।

तप और ध्यान की दिनचर्या से क्रमिक विकास यू होने लगा था

सुमिरण, चिंतन और आराधन ताप हृदय का धोने लगा था।

 

रत्नाकर अब इक कुटिया में कठिन तपस्या करने लगे थे l

राम नाम कभी मरा मरा की गूंज से चित्त को भरने लगे थे।

नई भोर में नई चुनौती कितना दुर्गम पथ था उसका।

कितने अवरोधों ने आकर रोका होगा रस्ता उस का।

जिनको कभी लूटा मारा था सुनता होगा उन का रुदन मन।

उन लोगों की चीत्कार व्यथा से मन में होता होगा क्रंदन।

रत्नाकर की दिनचर्या भी अब बदल रही थी धीरे-धीरे।

राम नाम की गूंज से मन  में बजने लगे थे ढोल मंजीरे।

तमसा के तट बने साक्षी पल पल था उत्थान हो रहा।

राम नाम के जप से निरंतर रत्ना का था त्राण हो रहा ।

आती-जाती ऋतुएं अपने संग कई पारितोषिक लाती।

रत्नाकर का रूप अलौकिक देख वहां अमृत बरसाती।

वर्षों की उस तपश्चर्या से  गहन समाधी लीन हो गए।

मुक्त हुए थे करम गति से लेकिन तन से क्षीण हो गए।

 

कठिन साधना देख के धरती गगन सितारे मौन हो गए।

पवन भी रुक रुक सोच में डूबी शांत क्यों वन घनघोर हो गए।

जीव जंतु मृग करें प्रतीक्षा पक्षी भी चुपचाप निहारे।

दीमक ने तन ढका ऋषि का कांप उठे तमसा के धारे।

ना जाने कितने वर्षों तक  परमानंद में रहे डोलते।

तन मन की सुध विसरी सारी नैनो के पट नहीं खोलते।

बिन कारण जो करुणा करते भ्रमण को निकले ऐसे गुरुवर।

उसी वन में पहुंचे मुनिराय तप में लीन जहां रत्नाकर।

माटी की बांबी के ऊपर कई चिट्टियां दौड़  रहीं थी।

विस्मित हो देखा मुनिवर ने भीतर काया झांक रही थी।

माटी की उस गुफा से लयबद्ध मंत्र से तरुवर गूंज रहे थे।

मधुर कंठ स्वर रत्नाकर का नारद जी पहचान रहे थे।

धीरे से नजदीक पहुंचकर शिष्य को इक आवाज लगाई।

टूटी गहन समाधि देखी गुरु की छवि परमसुखदाई ।

 

नमन किया गुरु चरणों में बाल्मीकि परम सुख पाया।

वर्षों की मिट गई पिपासा दिव्य उजास ह्रदय में छाया।

आशीर्वाद मिला गुरुवर से ब्रह्मऋषि की पदवी पाई।

रत्नाकर हो गए बाल्मीकि कानन में नवचेतना छाई।

नारद जी के आशीर्वाद से निर्जन वन भी हुआ मनोरम।

यही आश्रम हुआ स्थापित शिक्षा का संस्थान जो अनुपम।

वाल्मीकि का आश्रम सारे विश्व में विख्यात था।

ज्ञान का मंदिर था वह वहां नित नया संधान था।

आयुर्वेद और धनुर्वेद का होता था विस्तार वहां।

संगीतकार साहित्यकार का होता था निर्माण वहां।

जड़ी बूटियों पेड़ पौधों पर होता अनुसंधान वहां।

ज्ञान-विज्ञान की नित्य चर्चा से सभी का था सन्मान वहां।

आश्रम की गुरु शिष्य परंपरा भारत की पहचान थी।

वाल्मीकि के आश्रम की यही संस्कृति परम महान थी।

आत्मचिंतन मनन निरंतर आश्रम का आधार था।

उपनिषदों वेदों की ऊंची शिक्षा का प्रसार था।

 

एक बार नारद जी स्वंय ही बाल्मीकि से मिलने आए।

अतुलित शोभा देख वहाँ की ऋषिवर  मन ही मन मुस्काए।

प्रेम में डूबे वाल्मीकि जी देव ऋषि को भीतर लाए।

गुरु चरणों की करते बंदना तन पुलकित और मन हरषाए।                                                                                                       अभिनंदन कर रहे ऋषिवर साथ ही मन में सोच रहे हैं।

कितने वर्षों बाद दयामय गुरु ने अब दर्शन दिए हैं।

बैठे स्वयं भी बिछा के आसन बहने लगी तब ज्ञान की धारा।

परम गोपनीय सत्य से हो गया पावन ऋषि का गुरुकुल सारा।

गुरु की रसमय वाणी सुनकर बाल्मीकि जी गदगद् हो गए।

समझ के लीलाधर की लीला अपने ही आलोक में खो गए।

मौन हुए जब  देव ऋषि तब बाल्मीकि ने प्रश्न यह पूछा।

कौन है ऐसा महापुरुष संसार में जिस के तुल्य न दूजा।

कौन है ऐसा जिसने मन के विचलित अश्व को साध लिया है।                                                                                                       दैहिक सुख के पीछे वहते अपने चित् को बांध लिया है।

परहित कारण त्याग दिया जिसने सुख वैभव जीवन का।

इस धरती पर कौन है जिसने जीत लिया रण जीवन का।

 

अध्याय - 5 (रामायण अवतरण )

 

वर्तमान में कौन है गुरुवर धैर्यवान गुणवान तेजस्वी।

दृढ़ संकल्पि त्यागी प्रेमी जिस की वाणी परम तेजस्वी l

प्रेममयी जिज्ञासा सुन कर देवऋषि बोले मुस्काकर।

अति सुंदर  हैं प्रश्न आप के पूछे जो प्रभु प्रेम के कारण।

जितने भी गुण कहे आपने महापुरुष है एक धरा पर।

असंख्य  गुणों का स्वामी है वह कौशल राज्य का राजकुंवर।

परम पुनीत  है वह धर्मात्मा सकल जगत का है हितकारी।

प्रिय दर्शन मनोहारी है हृदय उदार सदा परोपकारी।

अवधपुरी  राजा दशरथ की अति सुहावनी पावन नगरी

सरयू के दक्षिण में विकसित नित छलके यहां भौर की गगरी l

 

दशरथ कौशल्या के नंदन सदा प्रसन्न विषाद नहीं कोई।

वर्तमान में इस धरती पर राम समान दूजा नहीं कोई।

इतने गुणों से भरा व्यक्तित्व सुनकर भावविभोर हो गए।

राम गुणों के श्रवण मात्र से  रत्नाकर फिर मौन हो गए।

राम प्रेम में डूबे देवऋषि राम का चरित्र वखान कर गए।

वाल्मीकि के प्रेम के कारण जीवन कथा का गान कर गये।

गुरू लौटे पर वाल्मीकि तो कथा के तंतु खोज रहे थे।

रघुनंदन के ध्यान में बैठे दिव्य चरित् वे सोच रहे थे।

संध्या के ढलने से पहले जा पहुंचे  तमसा के किनारे।

स्नान हेतु उतरे सरिता में देखे जब पावन जल धारे l

 

लेकिन दूसरे तट पर देखा एक शिकारी खड़ा हुआ था।

प्रेम मगन पक्षी जोडे के वध को वह तो अडा हुआ था।

क्रौंच पक्षी जैसे ही अपने प्रिय को देख स्वयं इतराया।

उसी समय एक तीर ने आकर नर पक्षी को मार गिराया।

मादा करोंच की चीत्कार से बाल्मीकि जी व्यथित हो उठे।

हृदय विदारक इस घटना से ऋषि अचानक व्यग्र हो उठे।

हृदय के संताप ने भीतर करुणा का इक भाव भर दिया।

तभी अचानक उस वहेलिए को अति घातक ये शाप दे दिया।

हे निषाद प्रिय बिरहा में जैसे तड़पा करोंच वेचारा।

पल पल ऐसे बेचैनी में बीते तेरा जीवन सारा।

घटना के उपरांत बाल्मीकि लौट के अपने आश्रम आए।

लेकिन मन में पश्चाताप के घने अंधेरे बादल छाए।

ऋषिवर सोचें क्रोध के वश में क्यों मैने यह पाप किया है।

अनजाने में क्यों कर मैंने इतना भयंकर शाप दिया है।

शाप के सारे शव्द ऋषि के अंतरमन में गूंज रहे थे।

आत्मग्लानि के सागर में पल पल ऋषिवर जूझ रहे थे l

 

और फिर बाल्मीकि के मन में सत्य उजागर हुआ अचानक।

कथन शाप का छन्दमय था पूर्ण बना था श्लोक कदाचित।

प्रिय  शिष्य श्री भारद्वाज को शब्दों का चमत्कार बताया

लयताल बद्ध बनी थी रचना स्वयं उसे गाकर दिखलाया

उसी समय पर हुआ आगमन सृष्टि के उस रचनाकार का

बाल्मिकी ने करके वंदन पूछा कारण घोर शाप का।

 

ब्रह्म जी ने बाल्मीकि के विचलित मन का ताप मिटाया।

केवल राम की महिमा का गुणगान करें यह पथ दिखलाया।

उन् की ही इच्छा के कारण वाल्मीकि ने योग्यता पाई।

महाकाव्य के बने रचयिता रामायण की कथा सुहाई।

पाकर के आदेश उन्हीं का वाल्मीकि ने कलम  उठाई।

रचने लगे श्लोक मनोहर आशीर्वाद मिला सुखदाई।

सिया राम का चरित्र मनोहर दिव्य दृष्टि से देख रहे थे।

महामानव श्री रामचंद्र की झांकी मधुर उकेर रहे थे।

नवरस युक्त काव्य में ऋषि ने प्रकट किया इतिहास सनातन।

राम जन्म से रामराज्य तक लिख डाली गाथा अति पावन।

अनुपम गाथा रघुनायक कि जैसे भीतर उतर रही थी।

वैसे ही ऋषि लिखते जाते कहीं पर हो जो घटित रही थी।

पूर्ण करके रचना अपनी वाल्मीकि जी लगे सोचने।

इतना सुंदर गीतकाव्य यह कौन गाएगा लगे खोजने।

 

अध्याय - 6 (रामायण गायन )

 

 

उसी समय कुछ मुनि पुत्रों ने प्रवेश किया कुटिया में।

करके बंदन बोले गुरुवर देवी है कोई उस बगिया में।

इस धरती की नहीं वह वासी देवलोक से आई है।

अति सुकोमल नख शिख किंतु रो-रो कर मुरझाई है।

शीघ्रता से उठे वाल्मीकि संग चले वे मुनिकुमार।

आश्रम के उस पार पहुंचकर देखी सीता खड़ी लाचार।

निकट पहुंचकर बोले पुत्री मैंने तुम्हें पहचान लिया है।

दिव्य दृष्टि से इस घटना को पहले ही से जान लिया है।

अपने दिव्य तपोवल से फिर सीता का संताप मिटाया।

स्नेह भरे आश्वासन से नवजीवन का पथ दिखलाया।

वापस गंगा पार उतर कर लक्ष्मण छिपकर देख रहे थे।

जब तक ऋषिवर मिले सिय को तब तक लक्ष्मण वहीं खड़े थे।

 

 

वाल्मीकि जी सोच रहे थे कैसे उन्हें सब ज्ञात हो रहा।

घटना घटने से पहले ही उस का सब आभास हो रहा।

गुरुदेव का आश्र्य पाकर जानकी आश्वस्त हो गई

किंतु हर पल दिव्य स्मृति में राम में अनुरक्त हो गई

गुरुकुल में ही जन्मे थे फिर राम सिया के लव कुश प्यारे।

वाल्मीकि के परम शिष्य वो प्रतिभावान ज्ञान के धारे।

प्रकृति के विस्तृत आंगन में लव कुश का बचपन खिला था।

सींच रहे ऋषि करुणा जल से अति सुंदर संजोग मिला था।

ऋषि की परम कृपा से दोनों वन के सुख दुख झेल रहे थे।

जीवन के हर सत्य को कैसे गुरुदृष्टि से देख रहे थे।

 

आज्ञा पालन हेतु दोनों रैन दिवस ही तत्पर रहते।

ऋषि कुमारों संग वे सारे आश्रम की व्यवस्था करते।

बाल्मीकि युगपुरुष धरा को परम तपस्वी वीर दे गए।

प्रेम दया और शौर्य  के गुरुवर उन में अनुपम बीज बो गए

सुर सिखलाने हेतु उन को कविवर ने वीणा बनवाई।

दोनों ही नित लगे सीखने गुरुवर के सच्चे अनुयायी।

रामायण के छंद मनोहर लव कुश को कंठस्थ करवाए।

लय ताल और तानो के संग श्रुतियो के भी नियम सिखाए।

मधुर कंठ के स्वामी दोनों जब भी रघुकुल गाथा गाते।

आश्रम के पशु पक्षी सारे सुनकर गायन मौन हो जाते।

एक बार श्री शत्रुघ्न जी इसी रास्ते गुजर रहे थे।

लवणासुर के वध उपरांत पूर्ण रूप से थके हुए थे।

आतिथ्य किया स्वीकार ऋषि का उतरा यात्रा का श्रम सारा।

परम विश्राम की इस बेला में बहने लगी संगीत की धारा।

दूर कहीं वीणा के स्वर बजने लगे थे धीरे-धीरे

रामायण के छंद गा रहे लव कुश दोनों तमसा तीरे।

 

प्रेम मगन हो  सुनते जाते रामानुज वो राम का गान l

आँखों से था नीर बह रहा श्रवण भी करते थे रसपान।

अपने कुल की गाथा सुन रिपुदमन हुए थे भाव विभोर।

व्याकुल मन से रहे सोचते क्यों है व्यथित ये मन के छोर।

कितने अनसुलझे प्रश्नों को लेकर सुनते रहे वो रामायण।

कौन रचयिता कौन गा रहा मधुर  कंठ से दिव्य यह गायन।

प्रातः नहाकर बंदन करके विदा लीनी ऋषिवर से जाकर।

सजल नयन व्याकुल मन ले कर बैठ गए वो रथ पर जा कर।

 

सबके मन की दशा जानते वाल्मीकि जी परमतपस्वी।

उनके ही तपबल से हो गए लव कुश अतुल गुणों के स्वामी।

मुनि वर का ये आश्रम हर इक राही को था आश्रय देता।

 बिना भेदभाव के सबके हृदय के संशय हर लेता।

लव कुश में श्री राम छवि सदा गुरुवर देखते रहते थे।

सियाराम के परम मिलन का शुभ संजोग खोजते रहते थे l

वैदेही के मन की व्याकुलता मुनिवर  की रचना शक्ति थी।

जप तप अर्चन नित्य क्रिया गुरु प्रेरणा सिय भक्ति थी।

सभी कलाओं में निपुण लव कुश ऋषिवर की आंखों के तारे।

आज्ञा पालन हेतु तत्पर दोनों वचन कभी ना हारे।

एक दिवस लव कुश को बुलाकर बोले तुम सब जान गए हो

रामायण के गायन की सब नियमावली पहचान गए हो।

अयोध्या में श्री रामचंद्र जी अश्वमेध यज्ञ करने जा रहे।

बहुत बड़े इस उत्सव के आयोजन अवधपुरी में होने जा रहे।

विद्वान पुरुष सारी धरती के अवधपुरी पधार रहे हैं।

हर चौराहा हर इक रस्ता पुरी के लोग संवार रहे हैं।

आप भी कौशल राज्य में जाकर अपनी कला दिखाओगे।

घूम घूमकर गली गली में रामायण पद गाओगे l

 

शिरोधार्य कर गुरु की आज्ञा पहुंचे अवधपुरी में वीर।

ऐसा मधुर गान वे करते धन्य धन्य करते मति धीर।

जिस पथ पे वे गाते चलते लोग वहीं एकत्रित होते।

सुनकर करून भरी गाथा फ़िर नैनो से अश्रु ना रुकते।

मधुर स्वर में गाते लव कुश पहुंचे सरयू किनारे l

अश्वमेध यज्ञ जहां हो रहा बहते नित्य प्रेम रस धारे।

महाराज श्री रामचंद्र ने बुलवाया दोनों को भीतर।

अपना ही वो रूप आलोकित देख अचंभित हुए करुणाकर।

यज्ञ में बैठे ऋषि मुनि सब सुनते रहे रघुवर की लीला।

भावविभोर हो सभी रो रहे सभी गुण धाम सभी गुणशीला।

 

अध्याय - 7 (उपसंहार )

 

 

परिचय पा कर रघुनंदन ने लव कुश को था गले लगाया।

और महर्षि वाल्मीकि ने सिया राम का मिलन कराया।

धन्य आदिकवि रत्न धरा के जीवन सारा होम कर दिया।

गहन हर्दय की करुणा से इक दिव्य अलौकिक ग्रंथ रच दिया।

ऐसे ही अब इस वसुधा को लव कुश जैसे तरुण चाहिए।

वाल्मीकि से गुरु चाहिए रामराज्य अवतरण चाहिए l

प्रणम्य अलौकिक रामायण यह प्रणम्य हैं इस के रचनाकार

सकल विश्व को दे दिया प्रेम भक्ति आधार l

रामायण को जानिए प्रकट राम आशीष l

वाल्मीकि के नेह से उतरे हैं जगदीश                                                                                                

                                                                                                                            

 

 

 

No comments:

Post a Comment