ग़ज़ल
चाँद तेरी चांदनी में क्या कहूँ कैसा लगा
कौन था मुझ से जुदा और कौन फिर मुझ सा लगा
जिस हवा में सांस लेते थे मेरे पुरखे सभी
उस हवा में सांस ले कर आज फिर अच्छा लगा
इक नज़र जो चाँद को देखा तुम्ही दिखने लगे
बारहा देखा तुम्हे तो मुख तेरा चन्दा लगा
देखने वाले की दृष्टि में ही सारी बात है
जिस ने जिस को जैसे देखा वो उसे बैसा लगा
सपने में देखा तुम्हे सच्चा लगा सब कुछ मुझे
उठ के जब देखा तुम्हे तो सब मुझे सपना लगा
घर को देखा लग रहा था घर पराया सा मुझे
दूर जंगल में मगर सब कुछ मुझे घर सा लगा
एक पल ही मैंने खुद को तुझ सा था समझा कपिल
हर जगह अपनी लगी फिर हर बशर अपना लगा
चाँद तेरी चांदनी में क्या कहूँ कैसा लगा
कौन था मुझ से जुदा और कौन फिर मुझ सा लगा
जिस हवा में सांस लेते थे मेरे पुरखे सभी
उस हवा में सांस ले कर आज फिर अच्छा लगा
इक नज़र जो चाँद को देखा तुम्ही दिखने लगे
बारहा देखा तुम्हे तो मुख तेरा चन्दा लगा
देखने वाले की दृष्टि में ही सारी बात है
जिस ने जिस को जैसे देखा वो उसे बैसा लगा
सपने में देखा तुम्हे सच्चा लगा सब कुछ मुझे
उठ के जब देखा तुम्हे तो सब मुझे सपना लगा
घर को देखा लग रहा था घर पराया सा मुझे
दूर जंगल में मगर सब कुछ मुझे घर सा लगा
एक पल ही मैंने खुद को तुझ सा था समझा कपिल
हर जगह अपनी लगी फिर हर बशर अपना लगा
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