Wednesday, 6 November 2013

A GHAZAL BY KAPIL ANIRUDH

ग़ज़ल
चाँद तेरी चांदनी में क्या कहूँ कैसा लगा 
कौन था मुझ से जुदा और कौन फिर मुझ सा लगा 

जिस हवा में सांस लेते थे मेरे पुरखे सभी 
उस हवा में सांस ले कर आज फिर अच्छा लगा

इक नज़र जो चाँद को देखा तुम्ही दिखने लगे
बारहा देखा तुम्हे तो मुख तेरा चन्दा लगा

देखने वाले की दृष्टि में ही सारी बात है
जिस ने जिस को जैसे देखा वो उसे बैसा लगा

सपने में देखा तुम्हे सच्चा लगा सब कुछ मुझे
उठ के जब देखा तुम्हे तो सब मुझे सपना लगा

घर को देखा लग रहा था घर पराया सा मुझे
दूर जंगल में मगर सब कुछ मुझे घर सा लगा

एक पल ही मैंने खुद को तुझ सा था समझा कपिल
हर जगह अपनी लगी फिर हर बशर अपना लगा

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