Sunday, 10 November 2013

aghazal by kapil anirudh

ग़ज़ल 
कब से कैसे उगा ढला दिनकर 
मेरे जीवन का सिलसिला दिनकर

भोर होते ही चल पड़ा तन्हा
सांझ होते ही फिर छुपा दिनकर

एक सुबह मेरे बगीचे में
संग फूलों  के खिल उठा दिनकर

खेत में आज तपती अग्नि में
उस के माथे से कुछ बहा दिनकर

तेरी आँखों से मेरे सीने में
रोज़ उगता है एक नया दिनकर

चूम माथा आशीष देता है
दूर धरती पे कुछ झुका दिनकर

No comments:

Post a Comment