ग़ज़ल
कब से कैसे उगा ढला दिनकर
मेरे जीवन का सिलसिला दिनकर
भोर होते ही चल पड़ा तन्हा
सांझ होते ही फिर छुपा दिनकर
एक सुबह मेरे बगीचे में
संग फूलों के खिल उठा दिनकर
खेत में आज तपती अग्नि में
उस के माथे से कुछ बहा दिनकर
तेरी आँखों से मेरे सीने में
रोज़ उगता है एक नया दिनकर
चूम माथा आशीष देता है
दूर धरती पे कुछ झुका दिनकर
कब से कैसे उगा ढला दिनकर
मेरे जीवन का सिलसिला दिनकर
भोर होते ही चल पड़ा तन्हा
सांझ होते ही फिर छुपा दिनकर
एक सुबह मेरे बगीचे में
संग फूलों के खिल उठा दिनकर
खेत में आज तपती अग्नि में
उस के माथे से कुछ बहा दिनकर
तेरी आँखों से मेरे सीने में
रोज़ उगता है एक नया दिनकर
चूम माथा आशीष देता है
दूर धरती पे कुछ झुका दिनकर
No comments:
Post a Comment