Wednesday, 27 March 2019

भारत गान-4

भारत गान-4
भाव में रत्त भारत, प्रकाश में रत्त भारत, अनवरत रुप से बहने वाली सांस्कृतिक,आध्यात्मिक धारा, भारत । किसी भोगोलिक इकाई, किसी सीमा, में एक ही समय मैं बंधा भी है और मुक्त भी। यह जाने बिना भारत का गौरव गान हो ही नहीं सकता। त्याग, प्रेम और संवेदना के गुण ही भारत को भारत बनाते है। इन गुणों का हम में अभाव ही भारतीयता का अभाव है। हमारी सीमाओं के प्रहरियों को यह गुण तो जन्म घुट्टी में मिलते हैं। सीमओं का रक्षक तो अंतिम श्वास लेते हुए भी सब की रक्षा, सब के सुख के भाव से ओत प्रोत होता है। इन्हीं भावोंं को अपनी इस कविता में संजोने का प्रयास किया है। यह मेरा भारत नमन है, देश रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त होने वाले सैनिकों को श्रद्धांजलि है।......
मातृभूमि तेरा सुत है तेरी शरण 
कर लो स्वीकार मेरा यह अंतिम नमन 
तेरी रक्षा को प्रहरी खड़े रात-दिन
वर्फ़ अंगार सहते बढ़ें रात दिन 
टेढ़ी चालों का करते हैं पल में दमन
मातृभूमि..….......…..............
नीर नदिया बहे, खेत सोना उगे 
प्रेम समभाव की सब में ज्योति जगे 
सबके हित में सदा ही बहे यह पवन।
मातृभूमि...….......................
तेरा मस्तक सदा यूं ही ऊंचा रहे।
तेरे गौरव की गाथा हिमालय कहे 
लौटकर आएंगे अब हैं करते गमन
मातृभूमि..….........................
कपिल अनिरुद्ध

Monday, 18 March 2019

भारत गान - 3

भारत गान - 3
भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा वैश्विक राष्ट्रवाद से मूलतः अलग है। हमारा राष्ट्र विश्व से अलग करके देखा ही नहीं जा सकता। यहां राष्ट्र की अवधारणा वसुधैव कुटुम्बकम् अर्थात सारा विश्व ही मेरा परिवार है, के भाव से ओतप्रोत है। तभी तो महोपनिषद् उदघोष करता है - अयं बन्धुरयं नेतिगणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ (महोपनिषद्, अध्याय ४, श्लोाक ७१)
अर्थ - यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों की तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।
जब बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय अपने उपन्यास आनंदमठ के लिए राष्ट्रगीत रचते हैं तो वंदे मातरम का उद्घोष करते हैं। बंकिमचंद्र की धरती मां, ही माँ भारती है। यही हमारे राष्ट्रवाद की विशेषता है। हमारे यहां वंदे मातरम का गान करने वाला, धरती मां की वंदना करने वाला एक ही समय में मानवतावादी एवं राष्ट्रवादी होता है। यदि हम इस मूल अवधारणा से दूर होंगे तभी संकट आएंगे। हमें तो प्रातः उठते ही धरती मां पर पांव रखने से पूर्व ही क्षमा प्रार्थना करने को कहा जाता है, और हम कहते हैं - समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले | विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे ||
अर्थात हे पृथ्वीदेवी ! आप समुद्र रूपी वस्त्रो को धारण करने वाली हैं, पर्वतरूपी स्तनो से सुशोभित है तथा भगवान विष्णु की पत्नी हैं, आपको नमस्कार है, मेरे द्वारा होने वाले पाद-स्पर्श हेतु मुझे क्षमा करें |
भाव यह कि जिसे धरती बंधन के संस्कार जन्म घुट्टी में दिए जाते हो उसका राष्ट्रवाद संकीर्ण कैसे हो सकता है। उसका राष्ट्रवाद मानवतावाद से अलग कैसे हो सकता है।
......क्रमशः........कपिल अनिरुद्ध

Friday, 15 March 2019

भारत गान-2

भारत गान-2
विरदी साहिब का यह कथन कि ‘भारत साकार से निराकार और निराकार से साकार होता रहा है’- अपने आप में अनवरत रूप से बहने वाली उस दार्शनिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक धारा की बात करता है जो इस भूखंड विशेष को भारत बनाती है। इस राष्ट्र को विशिष्ट से अति विशिष्ट बनाती है। इसी संदर्भ में यहाँ के खेत खलिहान, गाँव, पर्वत, नदियाँ, वनस्थलियाँ भी साधारण नहीं। नदियाँ मात्र जल का भंडार नहीं बल्कि तन के साथ साथ मन को भी निर्मल करने वाली हैं। नदियों के घाट, साधकों के आराधना, पूजा स्थल तथा देवी देवताओं के वास स्थल हैं। ललित निबंध ‘लोभ और प्रीति’ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं – यदि किसी को अपने देश से प्रेम है तो उसे अपने देश के मनुष्य, पशु, पक्षी, लता, गुल्म, पेड़, पत्तों, वन, पर्वत, नदी, निर्झर सब से प्रेम होगा। ..... यदि देश प्रेम के लिए हृदय में जगह करनी है तो देश के स्वरूप से परिचित और अभ्यस्त हो जाओ। बाहर निकलो तो आँखें खोल कर देखो की खेत लहलहा रहे हैं, नाले झड़ियों के बीच से कैसे बह रहे हैं। टेसू के फूलों से वनस्थली कैसे लाल हो रही है। चौपायो के झुंड चरते है, चरवाहे तान लड़ा रहे हैं। अमराइयों के बीच गाँव झांक रहा है।……..क्रमशः.....कपिल अनिरुद्ध

Wednesday, 13 March 2019

भारत गान-1


भारत किसी भौगोलिक इकाई, किसी भूखण्ड विशेष का नाम नहीं। यह नाम है अनवरत रूप से बहने वाली दार्शनिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक धारा का। इस धारा को यहाँ की बोलियों, भाषाओं, मान्यतायों, आस्थयों, विश्वासों, साहित्य, संगीत और कलायों ने निरंतर समृद्ध किया है। वेदों की ऋचाएं, उपनिषदों के मंत्र, वासुदेव कुटुम्भकम के चिंतन एवं सूफियाना विचारधारा ने इस धारा प्रवाह को गति प्रदान की है। जो निरंतर भाव में रत्त है, प्रकाश में रत्त है वही भारत है। यह देश एक सामूहिक संज्ञा है हमारे प्रज्ञ पुरुषों, ऋषियों, मुनियों, पीरों फकीरों, कलाकारों, चिंतकों, वैज्ञानिकों, स्वतंत्रता सेनानियों के उन प्रयासों की जिन्होंने इस भूखंड विशेष को भारत बनाया। आज गणतंत्र दिवस के अवसर पर इस भूगोलिक इकाई को भारत बनाने वाले सभी चिंतकों, महान विभूतियों को नमन।...कपिल अनिरुद्ध

Sunday, 10 March 2019

मुक्तक

कभी जब शीश पर अपने
मैं अपना हाथ धरता हूँ
मेरे अस्तित्व में तेरी
छुअन सी घूम जाती है
कभी आँखों में भर तुम को
नयन जब बंद करता हूँ
मुझे आभास होता है
मैं सुरभित इक सुमन सा हूँ
कभी जब बन के इक सूरज
मुझे तुम देखते इक टक
पिघल कर बाष्प बन जाऊं
मैं घूमूं मुक्त मारुत सा

Saturday, 9 March 2019

sun to zara ae sanwali

इत बांसुरी बजी है उत बाँवरी हुई सब 
इत बांसुरी पुकारे उत कौन रोक पाए 
नयनों को मूँद जब वो बंसी में प्राण फूंके 
फिर इक अदा लगन से कितने ही सर हैं झूमें 
इत सुरमयी जगत है उत श्यामली हुई सब 
इत बांसुरी बजी है.............
कहीं थिरकते हैं पाँव कहीं हाथ घूमते हैं
बंसी भी मुग्ध है अब इसे श्याम चूमते हैं
श्यामल घटा ने घेरा तो दामिनी हुई सब
इत बांसुरी बजी है..................
उत श्याम की हैं तानें इत श्यामली का नर्तन
उत श्याम का है गुंजन इत श्यामली का अर्चन
बन राग श्याम गूंजे और रागिनी हुई सब
इत बांसुरी बजी है................कपिल अनिरुद्ध