Sunday, 10 March 2019

मुक्तक

कभी जब शीश पर अपने
मैं अपना हाथ धरता हूँ
मेरे अस्तित्व में तेरी
छुअन सी घूम जाती है
कभी आँखों में भर तुम को
नयन जब बंद करता हूँ
मुझे आभास होता है
मैं सुरभित इक सुमन सा हूँ
कभी जब बन के इक सूरज
मुझे तुम देखते इक टक
पिघल कर बाष्प बन जाऊं
मैं घूमूं मुक्त मारुत सा

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