Saturday, 13 September 2014

ghazal by kapil

एक पल में पर्व में बदली है कैसे आपदा
एक पल में कैसे उभरी भाग्य की रेखा बता
एक पल में बंद है सदियों की दौलत बेपनाह
और सदियों में छुपा है एक पल कोई नया
ढूंढती सदियों रही जो उस के पावों के निशाँ
एक पल में दे गया वो उस को अपना हर पता
मुझ को मुझ से एक पल में वो मिला कर चल दिया
गुमशुदा था मैं तो कब से कब से था मैं लापता
एक पल ही उस ने मुझ को प्यार से देखा 'कपिल'
आस्मां धरती पे उतरा नभ पे छाई यह धरा

Friday, 22 August 2014

सुन तो ज़रा ऐ सांवली

सुन तो ज़रा ऐ सांवली .......
क्यों आज दुश्मन बन गयी
वो माधुरी वो सुरमयी
इक बांस की वो बांसुरी 
क्यों बन गयी वैरन तेरी
दोनों में अपनी तान से
जब गूंजते हैं श्याम ही
सौतन हुई फिर क्यों तेरी
वो बांस की इक बांसुरी
वो तो खोखली सी बांस की
थी लाकड़ी इक मधभरी
और तुम भी तो बेजान थी
आधी अधूरी अधमरी
दोनों में अपनी फूँक से
जब प्राण उस ने भर दिए
वो हो गयी इक बांसुरी
तुम्हे कह गए वो श्यामली
फिर हो गयी क्या बात है
किस बात से वैरन बनी
सौतन बनी वो बांसुरी
सुन तो ज़रा ऐ सांवली
सुन तो ज़रा कुछ तो बता

कृष्ण कन्हैया प्रकट हुए हैं

कृष्ण कन्हैया प्रकट हुए हैं अंधियारी सी कारागार में
आविर्भाव हुआ मोहन का कष्टों के इस अन्धकार में
जन्मों के संताप मिटे सब युगों युगों की मिटी निराशा
भागे तम अवसाद भी भागे मनमोहन की देख के आभा
व्याकुल मन को मिला सहारा दुखों की इस हाहाकार में
कृष्ण कन्हैया प्रकट............................................
सत्य की एक झलक पाते ही झूठ के पहरेदार सो गए
भय आतंक के ताले टूटे कष्टों के सब चिन्ह खो गए
परिवर्तित हो गयी निराशा केशव की ही जयजयकार में
कृष्ण कन्हैया प्रकट............................................
केशव के चरणों से छू कर शांत हुआ यमुना का जल भी
छाया कर दी शेषनाग ने मुग्ध हुआ देवों का दल भी
विलय हो गयी हलचल सारी शान्तरूप में शान्ताकार में
कृष्ण कन्हैया प्रकट............................................
शंख बजे डमरू भी बाजे बाजे बंसी दोल नगाड़े
करते मंगल गान मुनी सब चहुँ ओर बहते रस धारे
नृत्य भी देखो नाच रहा है जीवन के इस सभागार में
कृष्ण कन्हैया प्रकट............................................
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Tuesday, 12 August 2014

Ghazal Kapil Anirudh

तुम हो अंबर तो इक उड़ान हूँ मैं
तेरे होने की दास्तान हूँ मैं
तूने मंज़िल को रास्ता बक्शा
तेरी रह का ही इक निशान हूँ मैं
हर कदम इक नई चुनौती है
हर कदम एक इम्तिहान हूँ मैं
तेरी करुणा के नील सागर को
देखता बन के आसमान हूँ मैं

Tuesday, 8 July 2014

ग़ज़ल - कपिल अनिरुद्ध

कहाँ से आया कहाँ मैं जाता हूँ
यह पहेली समझ न पाता हूँ
रात दिन रेल सा हूँ गर्दिश में
रात दिन दूरियां मिटाता हूँ
रुकने चलने में कोई भेद नहीं
रुकते चलते मैं सीटियां बजाता हूँ
रेल सा गूंजता वो आता है
पटरियों सा बिछा मैं जाता हूँ
मुझ को रोके नहीं कोई सिग्नल
शून्य में गाड़ियां घुमाता हूँ
मील पत्थर नज़र नहीं आते
हर कदम मंज़िलों को पाता हूँ
वो स्टेशन सा मुझ को लगता है
उस के आँचल में चैन पाता हूँ

Thursday, 15 May 2014

ghazal by kapil

ग़ज़ल
तेरी सूरत तेरी अदा सुन्दर
हर जगह तुम लगे सदा सुन्दर
तेरा होना मधुर मधुरतम है
तेरे होने का सिलसिला सुन्दर
तेरे सौंदर्य का कहा किस्सा
मेरा अस्तित्व ही हुआ सुन्दर
मूँद आँखें तुम्हें निहारा जब
मौन भाषा ने फिर कहा सुन्दर
मूढ़ सी हो गई चपल चंचल
देख कर सामने सखा सुन्दर

Saturday, 19 April 2014

रचनाकार के नाम... कपिल अनिरुद्ध

रचनाकार के नाम
तुम अजब हो
क्या हो लेते
और फिर देते हो क्या
विष पिया खुद दे दी सब को
विष रहित इक ज़िन्दगी
पी गए तुम जाम कटुता
और पीड़ा के मगर
बांटते फिरते रहे
अमृत प्याले तुम सदा
शान में तेरी कहो
बंदा यह कह सकता है
क्या एक पल में हर पुरानी
शै को करते हो नया
दर्द पीड़ा हर अनादर
मुस्कुरा कर झेलते
और फिर करते सृजन तुम
इक नए तस्बीर का
एक लय का ताल का और
इक नए संगीत का
इस धरा पर रंग कितने
कैसे कैसे धर गए
बेनूर से चेहरों पे तुम
पल में उजाले धर गए
वेदना की लेखनी से
विष को अमृत कर गए

Tuesday, 25 March 2014

शीर्षक विहीन एक कविता: कपिल अनिरुद्ध

चुप धरती मौन अम्बर 
चाँद भी जम्हाई जैसे 
ले रहा है 
कारवां सारा ही जैसे थम गया है 
काफिला क्या वक़्त का भी रुक गया है 
किस के कहने पर मगर फिर
बादलों की टोली नभ पर
खेल सा इक खेलती है
कौन कहता है पवन को
बहते जाओ
किस ईशारे पर बताओ
मेघ बरसें
रात के कानों में जा कर
कौन बोलो कह रहा है
बिन रुके ही अपने पथ पर बढते जाओ
काम जो सौंपा है उस को करते जाओ

Tuesday, 18 March 2014

Holi by kapil


हर पल हर क्षण जग आधारा
देखो होली खेल रहा है
भर पिचकारी देखो उस ने
आसमान में रंग बिखेरे
फाग उड़ा कर मनमोहन ने 
इंद्रधनुष के रंग बनाये
लाल सुनहरी हरे गुलाबी
फूल उसी की होली के हैं
सूर्यमुखी वो गेंदा पंकज
रंगे उसी ने इन रंगों में
अद्भुत चित्र बनाये उस ने
अनुपम रंग बिखराये उस ने
रत्नाकर को नील गगन को
रंगा है उस ने अपने रंग में
हरियाली खुशहाली उस के
रंगों का ही करतब जानों
खो कर उस ने प्रेम रंग में
रंग डाली यह सृष्टि सारी
शब्द शब्द पे हर अक्षर पे
मारी उस ने भर पिचकारी
उस के ही रंगो से सारे
देखो होली खेल रहे हैं
ऊपर बैठा देख रहा वो
जादू अपने ही रंगों का
जिन रंगों से उस ने सब को
रंग डाला है उन रंगों को
देखो खुद पे डाल रहा वो
अपने ही रंगों से पल पल
स्वयं वो होली खेल रहा है
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Monday, 10 March 2014

a geet by kapil anirudh

श्याम तुम से प्रेम कर के श्यामली मैं हो गयी
सांवले से प्रीत जोड़ी सांवली मैं हो गयी
कल तक थी कंचन कामिनी इक चंचला सी दामिनी
क्या जादू तूने कर दिया इक रंग मुझ में भर दिया 
वो कामिनी वो दामिनी देखो हुई है सांवली, अब श्यामली
कह दो मुझे तुम श्याम या फिर श्याम की ही श्यामली
भांवरे से प्रीत कर के भांवरी मैं हो गयी
श्याम तुझ से प्रेम कर के ........................................
पूछें मुझे सखियाँ मेरी तुझे क्या हुआ तुझे क्या हुआ
सुन ऐ सखे मैं क्या कहूँ कुछ भी कहा जाता नहीं
हर शब्द अब लाचार है वह कुछ भी कह पाता नहीं
बस इसलिए मैं गौण हूँ दिखती भी हूँ पर मौन हूँ
चाँद से है प्रीत जोड़ी यामिनी मैं हो गयी
श्याम तुझ से प्रेम कर के ........................................

Saturday, 1 March 2014

ghazal by kapil anirudh

ग़ज़ल 
घोर निराशा में भी दृद विश्वास बनाये रखना तुम 
अँधियारा फिर फिर हारेगा दीप जलाये रखना तुम 

दिनकर तुझ से मिलने इक दिन तेरे घर भी आयेगा 
करुणा के अगणित दीपों से घर को सजाये रखना तुम

कभी किसी आकाश में बैठा कोई राह दिखायेगा
परदे सभी झरोखों से ऐ यार हटाये रखना तुम

धरती और आकाश के इक दिन भेद सभी खुल जायेंगे
खुशिओं पे लगाना तुम अंकुश पीड़ा को बढ़ाये रखना तुम

नैनों की इस पगडण्डी पर चल कर वो खुद आएगा
बस राहों पे कपिल सदा कुछ प्रीत बिछाये रखना तुम

Wednesday, 26 February 2014

a geet by kapil anirudh

तुम प्रेम की इक तान हो 
और मैं हूँ तेरी बांसुरी 

इक खोखली सी लाकड़ी
अधरों पे तुम ने क्या धरी 
मैं थी निर्गुणी थी बेसुरी
तूने कर दिया मुझे बांसुरी

कभी धूल थी कभी राख थी
फिर बांस की इक शाख थी
मुझे छेद डाला था गया
मैं जल गयी मैं थी मरी
तेरी इक छुअन से जी उठी
अमृत प्याला पी उठी
तूने गूँज मुझ में क्या भरी
मैं बन गयी इक बांसुरी

इक शिष्य मैं तुम हो गुरु
इक जिस्म मैं मेरे प्राण तुम
मैं शब्द हूँ तुम भाव हो
दुविधा हूँ मैं समाधान तुम

तुम मधुर हो मैं हूँ माधुरी
तुम तान हो मैं हूँ बांसुरी

Saturday, 15 February 2014

a geet by kapil anirudh

आली री मैं पिय के अंग लगी 
जिन के सारे अंग मनोहर उन के संग लगी 

मधुर मिलन की बात सखी री कैसे कहूँ मैं क्या बतलाऊँ 
कभी यह सोचूं कुछ न कहूँ मैं कहे बिना पर रह न पाऊं 
बतलाऊँ या न बतलाऊँ कैसी जंग लगी
आली री मैं पिय के अंग लगी .......

क्या बतलाऊँ कैसा प्यार था हर पल उस का इंतज़ार था
लोगों की नज़रों से बच कर कभी मैं सजती कभी संवरती
मुझे यह दुनिया प्यार की दुश्मन बहुत ही तंग लगी
आली री मैं पिय के अंग लगी .......

पिय मिलन की आस में पल पल हुई व्याकुल मैं संकुचाई
कभी याद में नीर बहाया और कभी मैं थी हरषाई
होले होले उस साजन के देखन रंग लगी
आली री मैं पिय के अंग लगी .......

बड़भागी फिर वो दिन आया मुझ से मिलने प्रियतम आया
एक नज़र जो पिया ने देखा मिट गया सारा भाग्य का लेखा
मुझ को अपनी छबी सखी री मस्त मलंग लगी
आली री मैं पिय के अंग लगी .......

अंग से अंग मिला साजन ने मेरा भरम मिटाया
मैं साजन की साजन मेरे अद्भुत भाव जगाया
मैं विरहन फिर बनी सुहागन पिया अर्धांग लगी
आली री मैं पिय के अंग लगी .......

Tuesday, 11 February 2014

muktak by kapil anirudh

अम्बर के तारों से तेरी भर सकता है खाली झोली एक अकेला 
मरुभूमि को दे सकता है सुरभित पुष्पित सी रंगोली एक अकेला 
एक अकेला दे सकता है अंधिआरे को कड़ी चुनौती
पल में रोशन कर सकता है अंधिआरे कि अंधी टोली एक अकेला

Saturday, 1 February 2014

a ghazal by kail anirudh in hindi

तवी किनारे .........

आ बैठा हूँ तवी किनारे मन में कुछ उद्दगार लिए
भावों के मैं पुष्प हूँ लाया और श्रद्धा के हार लिए

मौन को धारे जल की धारा धोती हर जन का संताप
कैसा निर्मल साँझा आँचल सब के हेतु प्यार लिए

पावन जल से अपने मन का जब भी है अभिषेक किया
मन में गूंजा अद्भुत गुंजन अनुपम इक झंकार लिए

हम ने कलुषित कर्मो की बस कालिख इस में डाली है
फिर भी सब की खातिर सरिता बहती है आभार लिए

सूरज पुत्री तवी धारा पर जननी बन कर उतरी है
आँचल में सब बच्चों के हित उत्सव और त्यौहार लिए
  • Nidhi Mehta Vaid jitni komal nadi ki dhara dikti hai, ussey zayada wage sey behti kyun ki ham sab key dukh santtap ko wo jaldi sey jaldi dur karna chahti hai, aur ja samandar sey milti hai, jiski lahron main asem uchaal hai par bhitar sey wo itna hi shant.
  • Nidhi Mehta Vaid bhaya ji surya putri kisey kaha hai aapne surya ki kirno ko yaa kuch aur plzzz isey samjhaye
  • Joginder Singh लेन-देन व्यवहार जगत का फिर क्यूँ वो इकतरफा हो,
    प्रत्युत्तर प्रदूषण देते पोषण का उपहार लिए...
  • Kapil Anirudh निधि जी, तवी शब्द संस्कृत शब्द तविषी से उपजा है, जिस का एक अर्थ सूर्य पुत्री भी होता है । दार्शनिक एवं वैज्ञानिक ढंग से भी यदि विचार किया जाए तो हमारी पृथ्वी सूर्य से ही तो आई है और नदी का अस्तित्व भी सूर्य के बिना कुछ भी नहीं, अत: सूर्य पुत्री नाम सार्थक कहा जाना चाहिए ।

Friday, 24 January 2014

ghazal in punjabi by kapil anirudh

Kapil Anirudh

मित्रो पंजाब के प्रवास ने सहज ही पंजाबी में लिखने की प्रेरणा दी है। दो दिन पूर्व कुछ स्फुरणा हुई और कुछ लिखा गया । उसी स्फुरणा के कुछ अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ।

 छुपके चुपके मार उडारी तोड़ गगन दे तारेयां नूँ
अन्दरो अंदरी नच्ची गाईं गुमसुम लब्बी सारेयां नूँ

मार छलांगां जित लै जा के उच्ची टीसी तूँ सजना
 वेख सकेंगा उत्थे जा के जग दे जित्तु हारेयाँ नूँ

अपना दीबा आपूं बन के रोशन कर दे राहां तूँ
तूँ की करना बाजीगरां दे झूठे सच्चे लारेयाँ नूँ

लिख सकना ताँ लिख लै मन ते उस दा सच्चा नाँ कापिल
छड्ड दे हत्थ विच्च पकडे बैनर भुल्ल जा सारे नारेयाँ नूँ

Friday, 10 January 2014

The bright and Shiny Life - an article by Surbhi Kesar


Life they say is not going to be bright and shiny.  Troubles are going to come. And not just come but charge on you with all their might. Matters what, is the shield you have to protect yourself, mainly an emotional and mental shield. A shield strong enough to take all impacts so that you are not wounded. We all might think it’s impossible since as the impact happens, it’s pitiful state so we try to hide, forgetting about the shield that we have. An all encompassing shield and once you have realized the true strength of that shield, that’s when miracles being to happen. Miracles that happen all the time but our eyes are not too sharp to catch them. The sun that shines every morning devouring the dark, every night the sun triumphs after a long battle is nothing but a miracle. Every morning when the birds chirrup and that smile it gets on an early dawn seeing them play with a climber, no matter what blocks your mind, trust me it’s miraculous how that teeny tiny bird makes you forget all the troubles for a small second. The trees that rustle and sway alike in loo, a breeze and cold wind, as if accepting all  that comes to it with the same spirit of acceptance. Think again and it’s miraculous! A little kid walking down the street giggles at you and you just forget all and smile back. No connection but just enough to call for that little silver lining around the dark cloud. The silver linings, the miracles, the gestures are always there, only that we never realize that we had the shield of these emotions which can always save us from the impact. So don’t blame the shield if you don’t know how to use it. Don’t blame him when you can’t see how he is always there, just right there. How when and where he comes and offers you help through someone’s hand, someone’s smile, someone’s chirrup, someone’s acceptance, teaching you the greatest of lessons of life, you have no idea. He creates miracles in every day you live. Don’t blame him if you can’t see it.
Life they say is not all bright and shiny or who knows life is all just bright and shiny.